महर्षि दयानन्द सरस्वती कृत "आर्याभिविनयः" (आर्यों की प्रार्थनाएँ) से उद्धृत
महर्षि दयानन्द सरस्वती कृत "आर्याभिविनयः" (आर्यों की प्रार्थनाएँ) से उद्धृत
महर्षि दयानन्द सरस्वती कृत "आर्याभिविनयः" (आर्यों की प्रार्थनाएँ) से उद्धृत
प्रार्थना विषय
ऊर्ध्वो नः पाह्यंहसो नि केतुना विश्व समत्रिणं दह ।
कृधी न ऊर्ध्वाञ्चरधाय जीवसे विदा देवेषु नो दुवः ॥ ऋग्वेद ॥
शब्दार्थ- हे सर्वोपरि विराजमान परब्रह्म ! आप [ऊर्ध्वः] सबसे उत्कृष्ट हो (अतः हमको भी उत्कृष्ट गुण वाले करो) । (हे सर्वपापप्रणाशकेश्वर !) [नः] हमको [केतुना] प्रकृष्ट ज्ञान-विज्ञान देकर [अंहसः] (अविद्यादि वा परपदार्थ हरणादि) महापाप से [निपाहि] नित्य रक्षा करो (तथा) [अत्रिणम्] (हमारे दुष्ट राक्षस) शत्रुओं को [सन्दह] अच्छे प्रकार से जलाओ अर्थात्. सम्यक् भस्मीभूत करो । (हे कृपानिधे !) [नः] हमको [चरथाय] (सर्वत्र इच्छानुकूल आनन्दपूर्वक) विचरण (वा) [जीवसे] (आरोग्य तथा सर्वत्र सुखी) जीवन के लिए [ऊर्ध्वान] सर्वोत्तम गुण वाले [कृधि] करो (तथा) [नः] हमें [देवेषु] विद्वानों के बीच [विदा] विद्यादि उत्तम धन की प्राप्ति के लिए (उनकी) [दुवः] सेवा को (प्राप्त कराओ) अर्थात् विद्वानों की सेवा से हम विद्यादि उत्तम धन को प्राप्त करें ॥
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