ईशावास्योपनिषद ( ईशोपनिषद्) की एक झलक

ईशावास्योपनिषद ( ईशोपनिषद्) की एक झलक

ईशावास्योपनिषद ( ईशोपनिषद्) की एक झलक

ईशावास्योपनिषद ( ईशोपनिषद्) की एक झलक

          यजुर्वेद का अंतिम चालीसवाँ अध्याय कुल 18 श्रुति मंत्र का है। यह अध्याय र्ईशावास्योपनिषद के नाम से जाना जाता है। भारतीय दर्शन तथा अध्यात्म-चिंतन की परम्परा में यह उपनिषद अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान को प्राप्त है । यह उपनिषद   भारतीय ‘यज्ञ संस्कृति’ के आधार को आधारभूत रूप में प्रकट करती है तथा उसे  भलीभांति जान लेने और नित्यजीवन में अपनाने हेतु हमारी सहायता करती है ।  

    ईशावास्योपनिषद नाम से प्रसिद्ध इस उपनिषद के प्रथम श्रुतिमंत्र में ऋषि कथन आया है कि - ‘यह समस्त जागतिक सम्पदा ‘ईशतत्त्व’ की नियामक शक्ति से परिपूरित है । अतः इसका उपभोग अपनी आवश्यकता के अनुरूप,  त्याग की भावना के साथ, लोभरहित अवस्था में करना चाहिये तथा इसका संग्रह कदापि करना नहीं चाहिये :- 

ओ३म् ईशा वास्यमिदँ सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृथः कस्य स्विद्धनम्।। ( यजुर्वेद ४०|१ )

    अर्थात् “इस अखिल ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी छोटा या बड़ा जड़-चेतन स्वरूप है, वह सब कुछ ‘ईशतत्त्व’ की नियामक शक्ति से परिपूरित है । यह सब ‘ईशतत्त्व’ द्वारा सन्धारित है । अत: इस जागतिक सम्पदा का उपभोग त्यागपूर्वक करते रहो; इसका लोभ मत लोभ करो । यह जागतिक धन-सम्पदा जो पसीने के समान गुण-धर्म को धारण करने वाली है, आखिर यह किसके स्वामित्व की है ?”

     उपनिषद्वागणी में आया यह श्रुतिमंत्र यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय की प्रथम वेदऋचा है । इस वेदऋचा में जगत के धारणकर्ता विधान को प्रकट करते हुए श्रुति का कथन है कि इस अखिल जगत में जो कुछ भी चर-अचर रूप में जागतिक धन-सम्पदा है यह सब की सब ‘ईश्वर तत्त्व’ की नियामक शक्ति से परिपूरित है । इस सकल जागतिक सम्पदा का नियमन उस पराशक्ति द्वारा किया जाता है । अतः इस जागतिक सम्पदा का उपभोग अपनी आवश्यिकता के अनुसार, त्यागपूर्वक करना चाहिये । इसके प्रति संग्रहवृत्ति को अपनानाअ नहीं चाहिये । जिस प्रकार जल में रहने वाला कमल, जल के प्रति आसक्ति को अपनाता नहीं है, वह तो अपना जीवन धारण करने हेतु अपनी आवश्यसकता के अनुरूप ही जल का भोग करता है, उसी प्रकार हमें भी धन-सम्पदा से परिपूर्ण इस जगत में अपने जीवन की आवश्यकता के अनुरूप ही इस सम्पदा  का उपभोग करना चाहिये । इसका  फिजुल खर्च या इसका अपव्यय कदापि करना नहीं चाहिये और न इसका संग्रह ही  करना चाहिये । 

    यहाँ श्रुति द्वारा सकल जागतिक धन-सम्पदा के उपभोग हेतु ‘भुञ्जीथा’ शब्द का उपयोग किया गया है । यह ‘भुञ्जीथा’ शब्द क्रियात्मक है । यह अग्नि द्वारा किसी वस्तु को भुञ्जने की क्रिया को प्रकट करता है । किसी भी वस्तु को बीजरूप में भुञ्जने का प्रभाव यह होता है कि वह वस्तु इस क्रिया के उपरांत अंकुरण की क्षमता से रहित हो जाती है । वह संतति प्रक्रिया से रहित हो जाती है। अतः श्रुति का कथन है कि हमारा त्याग किसी फलप्राप्ति की इच्छा से होना नहीं चाहिये । हमें सहज रूप में ही अपनी आवश्यीकता के अनुसार जागतिक सम्पदा का उपभोग करना चाहिये ।

    इसके साथ ही श्रुति समस्त जागतिक धन-सम्पदा के प्रति लोभवृत्ति या संग्रहवृत्ति को अपनाने का निषेध करती है । हम संग्रहवृत्ति का परित्याग करने वाले हो जावें; अतः श्रुति इस सकल जागतिक धन-सम्पदा का परिचय प्रदान करते हुए कथन करती है कि यह सब धन-सम्पदा तो ‘स्वेद’ अर्थात्‍ पसीने के गुण-धर्म को धारण करने वाली है । अतः इसके प्रति संग्रहवृत्ति आधारित स्वामित्व का भाव भी अपनाना नहीं चाहिये ।   

     यहाँ इस वेद ऋचा में आया यह ‘स्विद्‍’ शब्द अत्यन्त महत्व का हो गया है । यह ‘स्विद्‍’ शब्द अपने अर्थ रूप में ‘पसीने’ को आधार बना कर संकेत करता है तथा संदेश देता है कि पसीने के गुण-धर्म के समान, लक्षणों वाली यह सकल जागतिक सम्पदा तो पसीने के समान ही हाथ से फिसलने वाली है । अर्थात्‍ चलायमान अवस्था को धारण करने वाली है । जागतिक सम्पदा के इस चलायमान गुण को ही हमारे द्वारा ‘धन-सम्पदा की देवी लक्ष्मीजी’ को चलायमान कहा जाकर स्मृति में धारण किया गया है । यहाँ श्रुति प्रतिबोधात्मक रूप में यह भी संदेश देती है कि जिस प्रकार पसीने के प्रति लोभ किया नहीं जाता एवं पसीने के प्रति संग्रहवृत्ति को अपनाया नहीं जाता, न उस पर स्वामित्व का भाव ही प्रकट किया जाता है, उसी प्रकार इस सकल जागतिक सम्पदा का न तो संग्रह करना चाहिये और न इसके प्रति स्वामित्व का भाव ही अपनाना चाहिये ।

     धन-सम्पदा के प्रति श्रुति द्वारा ‘स्विद्‍’ शब्द रूप में पसीने का प्रतीक अपनना यह भी सूचित करता है कि यह ‘पसीना’ ‘पृथिवी तत्त्व’ का अंग होता है, अतः जिस प्रकार हमारे द्वारा पंच महाभूतों में - हवा, पानी, अग्नि और आकाश आदि का उपभोग अपनी आवश्य कता के अनुसार किया जाता है, उसी प्रकार इस  जागतिक धन-सम्पदा का उपभोग भी अपनी आवश्यनकता के अनुसार ही करना चाहिये । हवा, पानी, अग्नि और आकाश का बोध प्रदान करने वाले सूर्य के प्रकाश की भांति जागतिक धन-सम्पदा के प्रति संग्रह और स्वामित्व का भाव अपनाना नहीं चाहिये । आखिर इन पंचमहाभूतों पर स्वामित्व किसका है ? 

    इस प्रकार यह वेदमंत्र ‘धनोपार्जन की अन्धीदौड़’ के प्रति ब्रेक लगाने और जीवन में संतोषवृत्ति को अपनाने हेतु आवश्यक मार्गदर्शन करता है । यह तो जागतिक धन-सम्पदा के ईश्वरीय गुण को प्रकट करता हुआ सुखमय लौकिक जीवन का आधार प्रकट करता है और अनैतिक आचरण द्वारा धनोपार्जन करने तथा संग्रहवृत्ति के प्रति निषेध करता है । जिसका पालन हमें अवश्य ही करना चाहिये ।

 

sarvjatiy parichay samelan,marigge buero for all hindu cast,love marigge ,intercast marigge 

 rajistertion call-9977987777,9977957777,9977967777or rajisterd free aryavivha.com/aryavivha app