अमर बलिदानी तात्या टोपे बलिदान दिवस
अमर बलिदानी तात्या टोपे बलिदान दिवस
17 अप्रैल 1859 : बलिदान दिवस
अमर बलिदानी तात्या टोपे
छत्रपति शिवाजी के उत्तराधिकारी पेशवाओं ने उनकी विरासत को बड़ी सावधानी से सँभाला, अंग्रेजों ने उनका प्रभुत्व समाप्त कर पेशवा बाजीराव द्वितीय को आठ लाख वार्षिक पेंशन देकर कानपुर के पास बिठूर में नजरबन्द कर दिया, इनके दरबारी धर्माध्यक्ष रघुनाथ पाण्डुरंग भी इनके साथ बिठूर आ गये, इन्हीं रघुनाथ जी के आठ पुत्रों में से एक का नाम तात्या टोपे था।
1857 में जब स्वाधीनता की ज्वाला धधकी, तो नाना साहब के साथ तात्या भी इस यज्ञ में कूद पड़े बिठूर, कानपुर, कालपी और ग्वालियर में तात्या ने देशभक्त सैनिकों की अनेक टुकड़ियों को संगठित किया, कानपुर में अंग्रेज अधिकारी विडनहम तैनात था, तात्या ने अचानक हमला कर कानपुर पर कब्जा कर लिया; यह देखकर अंग्रेजों ने नागपुर, महू तथा लखनऊ की छावनियों से सेना बुला ली अतः तात्या को कानपुर और कालपी से पीछे हटना पड़ा।
इसी बीच रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी में संघर्ष का बिगुल बजा दिया, तात्या ने उनके साथ मिलकर ग्वालियर पर अधिकार कर लिया, तात्या दो वर्ष तक सतत अंग्रेजों से संघर्ष करते रहे, चम्बल से नर्मदा के इस पार तक तथा अलवर से झालावाड़ तक तात्या की तलवार अंग्रेजों से लोहा लेती रही, इस युद्ध में तात्या के विश्वस्त साथी एक-एक कर बलिदान होते गये।
अकेले होने के बाद भी वीर तात्या टोपे ने धैर्य और साहस नहीं खोया।
तात्या टोपे केवल सैनिक ही नहीं, एक कुशल योजनाकार भी थे उन्होंने झालरा पाटन की सारी सेना को अपने पक्ष में कर वहाँ से 15 लाख रुपया तथा 35 तोपें अपने अधिकार में ले लीं।
इससे घबराकर अंग्रेजों ने छह सेनापतियों को एक साथ भेजा; पर तात्या उनकी घेरेबन्दी तोड़कर नागपुर पहुँच गये, अब उनके पास सेना बहुत कम रह गयी थी, नागपुर से वापसी में खरगौन में अंग्रेजों से फिर भिड़न्त हुई, 7 अप्रैल, 1859 को किसी के बताने पर पाटन के जंगलों में उन्हें शासन ने दबोच लिया, ग्वालियर (म.प्र.) के पास शिवपुरी के न्यायालय में एक नाटक रचा गया, जिसका परिणाम पहले से ही निश्चित था।
सरकारी पक्ष ने जब उन्हें गद्दार कहा, तो तात्या टोपे ने उच्च स्वर में कहा- मैं कभी अंग्रेजों की प्रजा या नौकर नहीं रहा, तो मैं गद्दार कैसे हुआ? मैं पेशवाओं का सेवक रहा हूँ जब उन्होंने युद्ध छेड़ा, तो मैंने एक पक्के सेवक की तरह उनका साथ दिया, मुझे अंग्रेजों के न्याय में विश्वास नहीं है या तो मुझे छोड़ दें या फिर युद्ध बन्दी की तरह तोप से उड़ा दें।
अन्ततः 17 अप्रैल 1859 को उन्हें एक पेड़ पर फाँसी दे दी गयी कई इतिहासकारों का मत है कि तात्या कभी पकड़े ही नहीं गये जिसे फाँसी दी गयी, वह नारायणराव भागवत थे, जो तात्या को बचाने हेतु स्वयं फांसी चढ़ गये, तात्या संन्यासी वेष में कई बार अपने पूर्वजों के स्थान येवला आये।
इतिहासकार श्री निवास बालासाहब हर्डीकर की पुस्तक तात्या टोपे के अनुसार तात्या 1861 में काशी के खर्डेकर परिवार में अपनी चचेरी बहिन दुर्गाबाई के विवाह में आये थे तथा 1862 में अपने पिता के काशी में हुए अंतिम संस्कार में भी उपस्थित थे, तात्या के एक वंशज पराग टोपे की पुस्तक तात्या टोपेज आॅपरेशन रेड लोटस के अनुसार कोटा और शिवपुरी के बीच चिप्पा बरोड के युद्ध में 1 जनवरी, 1859 को तात्या ने वीरगति प्राप्त की।
अनेक ब्रिटिश अधिकारियों के पत्रों में यह लिखा है कि कथित फांसी के बाद भी वे रामसिंह, जीलसिंह, रावसिंह जैसे नामों से घूमते मिले हैं, स्पष्ट है कि इस बारे में अभी बहुत शोध की आवश्यकता है lllllllll
महावीर सिघंल
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