ब्रह्मचर्य ऋषियों ने ब्रह्मचर्य की महिमा का गान बडे़ ही मार्मिक शब्दों में किया है।

ब्रह्मचर्य ऋषियों ने ब्रह्मचर्य की महिमा का गान बडे़ ही मार्मिक शब्दों में किया है।

ब्रह्मचर्य ऋषियों ने ब्रह्मचर्य की महिमा का गान बडे़ ही मार्मिक शब्दों में किया है।

ब्रह्मचर्य ऋषियों ने ब्रह्मचर्य की महिमा का गान बडे़ ही मार्मिक शब्दों में किया है। ऐसा कहा गया हे 

 ”मरणं बिन्दु पातेण जीवन बिंदु धारयेत“ ॥हयो-३.८८॥

  यह श्लोक बताता है कि बिंदु अर्थात् वीर्य का पतन मृत्यु की ओर ले जाता है एवं वीर्य को धारण करना व्यक्ति को जीवन प्रदान करता है। जीवित कौन? आँखों पर चश्मा, सफेद बाल, पिचके हुए गाल, लड़खड़ाते कदम, झोले व दवाईयाँ क्या यही जीवन की परिभाषा है? क्या सृष्टा का अनुपम उपहार मानव जीवन यही है जिसको पाने के लिए देवता भी तरसते हैं? अधिकाँश व्यक्ति जिंदा लाश बनते चले जा रहे हैं जिनको किसी प्रकार अपने जीवन की अवधि पूरी करनी हैं यही कारण है आत्महत्या करने के १०१ उपाय जैसी किताबें विदेशों में खूब बिकती हैं परन्तु भारत के ऋषि जीवन की यह परिभाषा स्वीकार नही करते, 

   ”वही जीवित है जिसका मस्तिष्क ठंडा, रक्त गर्म और पुरुषार्थ प्रखर है।“

  ऋषि कहते है ‘जीवेम शरद शतम्’ यदि आप जीवन के साथ खिलवाड़ नही करते तो १०० शरद ऋतु आराम से पार कर सकते हैं ऋषि ने शरद ऋतु की बात कही है। प्राणवान व्यक्ति ही शरद ऋतु का आनन्द ले सकता है अर्थात् हम सौ वर्ष तक बड़े मजे से, सक्रिय जीवन जी सकते हैं।

   परन्तु दुर्भाग्य हमारा समाज के वासनात्मक और कामुक वातावरण ने हमारे जीवन रस (वीर्य) को निचैड़ कर रख दिया पूरा समाज आज वासना के कोढ़ से ग्रस्त हो गया है क्योंकि हमनें ब्रह्मचर्य की गरिमा को भुला दिया।

   ऋषि पतंजलि का सूत्र हैः-
           ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां वीर्य लाभः। (योग दर्श साधन पाद-१८)

     अर्थात् जीवन में ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा से वीर्य का लाभ होता है।

   ऐसा प्रतीत होता है कि इस श्लोक के द्वारा ऋषि समाज को अथवा मानव जीवन को सामथ्र्यवान बनाने का सूत्र बता रहे हैं। शास्त्रों में सामर्थ्यवान को वीर्यवान की उपमा दी गई है। उदाहरण के लिए श्रीमद्भागवत् गीता में पाण्डवों की सेना के महान् योद्धाओं को वीर्यवान कह कर सम्बोधित किया गया है।

   अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो विराट द्रुपद महारथः ॥ (१\४)

  धृड्ढकेतुकितानः काशिराज वीर्यवान्।
पुरुजित्कुन्तिभोज शैबय नरपुअङ्ग वः ॥ (१\५)

  युधामन्यु विक्रान्त उत्तमौजा वीर्यवान्।
सौभद्रो द्रौपदेया सर्व एव महारथाः॥  (१\६)

  यहाँ पाण्डवों की सेना में बड़े-बड़े शूरवीर है जिनके बड़े-बड़े धनुष है व युद्ध में भीम व अर्जुन के समान है। युयुधान (सात्यकि) राजा विराट और द्रुपद जैसे महारथी है धृष्टकेतु, चेकितान तथा काशीराज जैसे पराक्रमी भी है पुरुजित् और कुन्तिभोज तथा मनुष्य में श्रेष्ठ शैब्य भी है, युद्धमन्यु जैसे पराक्रमी व उत्तमौजा जैसे वीर्यवान भी हैं। सुभद्रापुत्र अभिमन्यु और द्रौपद्री के पाँचों पुत्र (प्रतिविन्धय, सुतसोम, श्रुतकर्मा, शतानीक और श्रुतसेन) सबके सब महारथी है।

   प्राचीन काल में वातावरण पवित्र एवं सात्विक था नर और नारी परस्पर पवित्र दृष्टि रखते थे एवं लोग सहजता से ब्रह्मचर्य का पालन कर लेते थे। नर और नारी का सह-सामीप्य उमंग उल्लासपूर्ण और दिव्यता से भरा भी हो सकता है यदि दोनों की दृष्टि पवित्र है। इस परिस्थिति में नारी को पुरुष की शक्ति कहा जाता है परन्तु दुर्भाग्यवश आज नारी के भोग्य स्वरूप का समाज में इतना अधिक प्रचलन हो गया है व नारी भी स्वयं को उसी रूप से प्रस्तुत (प्रदर्शित) करने लगी है इस कारण ब्रह्मचर्य का पालन एक चुनौती (challenge) बन गया है।

  आयुर्वेद के अनुसार शरीर सात धातुओं से बना है जिसमें वीर्य एक महत्वपूर्ण धातु है युवा अवस्था में शरीर में वीर्य धातु पर्याप्त मात्रा में होती है इस कारण व्यक्ति सशक्त जीवन जीता है परन्तु ४० वर्ष के उपरान्त यह धातु कमजोर पड़ने लगती है अतः असावधान व्यक्ति तरह-तरह के गम्भीर रोगों से घिरने लगता

   जो व्यक्ति स्त्री लोलुप होकर वीर्य धातु को दुर्बल बना लेते है अथवा जो स्त्री के विषय में संयमी रहकर वीर्य को पुष्ट बना लेते हैं उनके परिणाम के विषय में आयुर्वेद कहता है।

     भ्रम क्लमोरूदौर्बल्य बल धात्विन्द्रियि क्षयाः।
     अपर्वमरणं च स्यादन्यथागच्छतः स्त्रियिम्॥
     उपर्युक्त विधि पालन न करने से भ्रम, क्लम, जांघों में निर्बलता, बल व धातुओं का क्षय, इन्द्रियों में निर्बलता और अकाल मृत्यु- ये परिणाम होते हैं।और यदि इस विधि का पालन किया जाए तो-
    समृति मेधाऽऽपुरातोग्य पुष्टीन्द्रिय यशोबलैः।
     अधिकामन्दजरसौ भवन्ति स्त्रीषु संयता॥ 

   स्त्रियों के विषय में संयमी पुरुष याद्दाश्त, बुद्धि ,आयु, आरोग्य-पुष्टि, इन्द्रिय-शक्ति, शुक्र, यश और बल में अधिक होता है और बुढ़ापा उसको देर से आता

  ब्रह्मचर्य के विषय में हमें दो विरोधी विचार धाराओं का टकराव देखने का मिलता है। एक है पूर्व की धारा जिसको हम भारतीय संस्कृति कहते हैं व दूसरी है पश्चिम की धारा। हमारी संस्कृति ब्रह्मचर्य पालन पर बहुत जोर देती है व इसको तपों में सर्वोत्तम तप कहकर सम्बोधित करती है। पश्चिम (west) की संस्कृति में इस बात का जोर है कि इन्द्रियों के दमन से मानसिक विड्डतियाँ जन्म लेती हैं अतः व्यक्ति को स्वच्छंद जीवन जीना चाहिए। सैक्स (sex) से जीवन में रस आता है व सम्पूर्ण शरीर में एक प्रकार की charging होती है जो वीर्य निकलता है उसकी क्षति कुछ कैल्शियम, पोटाशियम, व minerals के द्वारा आसानी से हो जाती है। सैक्स(sex ) से व्यक्ति जवान बना रहता है नहीं, तो life dull होती जाती है। पश्चिम में सिग्मण्ड फ्रायड नामक एक दार्शनिक हुए हैं जिन्होंने इस दिशा में काफी शोध कार्य किया है। west की theory उन्हीं की researches पर आधारित है। 

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