सप्तम क्रिया – उपस्थान मंत्रा:

सप्तम क्रिया – उपस्थान मंत्रा:

सप्तम क्रिया – उपस्थान मंत्रा:

सप्तम क्रिया – उपस्थान मंत्रा:


         अपनी साधना और प्रभु प्रार्थना के बल पर हमारा साधक पृथिवी से ऊपर उठ कर उन्नति के उच्चतम शिखरों को छूता हुआ पहाड़ की उच्चतम चोटी पर पहुँच गया है | इसका  भाव यह है कि वह सर्वाधिक यश और ऐश्वर्य का स्वामी बन जाता है | अब वह प्रभु की उपासना करता है | उप का अर्थ होता है निकट और स्थान से भाव है स्थान पाना | अत: अब उसने प्रभु के समीप बैठने का अधिकार पाते हुए समीप बैठ भी गया है | अब वह अपनी प्यासी आँखों की पिपासा को शांत करने के लिए प्रभु के उस आलौकिक रूप और ऐश्वर्य का पान कर रहा है , जिसे पाने के लिये महान् तपस्वी लोग कठोर तप करते हैं | प्रभु की इस रूप सुधा रूपि अमृत का पान करते हुए साधक के हृदयों के अन्दर आनंद की किस प्रकार की उमंगें उठ रही हैं तथा उस साधक की वाणी से किस प्रकार के पवित्र उद्गार फूट रहे हैं , इस सब को जानने के लिए हमें उपस्थान के मन्त्रों का अवलोकन करते हुए इन्हें समझना होगा |
१.  प्रियतम प्रभु के पास 
         जब हमारा यह साधक उन्नति के अंतिम शिखर पर पहुँच जाता है तो वह “देवत्रादेव” अर्थात् देवाधिदेव की समीपता को पाकर उल्लासित हो जाता है | वह उसको पाने के आनंद का अनुभव करने लगता है |
२.  प्रभु की मधुर झांकी 
        अब यह अवस्था आ जाती है कि प्रभु के प्रकाश की स्वर्णमयी किरणें  उसके गालों को , मुखमंडल को छूने लगती हैं | उस प्रभु के सौन्दर्य, सामर्थ्य , ज्ञान तथा प्रेम की और इंगित करने वाली झंडियाँ ( जिन्हें कटवा कहते हैं ) अपने हाथों में लेते हुए साधक उस पिता के व्योमचुम्बी अथवा गगनचुम्बी महलों में पहुँच जाता है | अब प्रभु से उसकी आँखे चार हो रही हैं | प्रभु से मिलन की ख़ुशी में उसकी आँखों से स्नेह पूर्ण अश्रु की अविरल धारा बह रही है | 
३.  परभु के साक्षात् दर्शन 
       अब तक साधक और प्रभु में आँख मिचौली हो ली | विरत प्रभु अब अपने रूप को साधक के सामने अनावृत कर रहे हैं | साधक की पलकों में प्रभु के प्रकाश की मधुर ज्योति समा रही है | प्रभु की इस ज्योति से सम्पूर्ण प्रथिवी आच्छादित दिखाई दे रही है | जो देखा गया है बस उसे ही “चित्रम्” कहा गया है |
४.  प्रभु मिलन 
       प्रभु उपासना में रत साधक “ देवहितं” अर्थात् सब का हित चाहने वाले प्रभु के चरणारविन्दों में अपना मस्तक झुकाते हुए इन्हें अपनी छाती से लिपटा लेता है | अब उसे अनुभव होता है कि जिस अमूल्य निधि को पाने के लिए वह प्रयास कर रहा था , वह अमूल्य निधि ( प्रभु चरण ) उसे मिल गई है | अब वह पूर्णतया अदीन बन गया है | भाव यह है कि वह अब सब प्रकार के ऐश्वर्यों का स्वामी हो गया है | इस का कारण यह है कि उसके ह्रदय में उसे इस प्रकार का आनंद प्राप्त हो गया है कि जिसका वह शब्दों द्वारा वर्णन नहीं कर सकता | सप्तम क्रिया – उपस्थान मंत्रा:
         अपनी साधना और प्रभु प्रार्थना के बल पर हमारा साधक पृथिवी से ऊपर उठ कर उन्नति के उच्चतम शिखरों को छूता हुआ पहाड़ की उच्चतम चोटी पर पहुँच गया है | इसका  भाव यह है कि वह सर्वाधिक यश और ऐश्वर्य का स्वामी बन जाता है | अब वह प्रभु की उपासना करता है | उप का अर्थ होता है निकट और स्थान से भाव है स्थान पाना | अत: अब उसने प्रभु के समीप बैठने का अधिकार पाते हुए समीप बैठ भी गया है | अब वह अपनी प्यासी आँखों की पिपासा को शांत करने के लिए प्रभु के उस आलौकिक रूप और ऐश्वर्य का पान कर रहा है , जिसे पाने के लिये महान् तपस्वी लोग कठोर तप करते हैं | प्रभु की इस रूप सुधा रूपि अमृत का पान करते हुए साधक के हृदयों के अन्दर आनंद की किस प्रकार की उमंगें उठ रही हैं तथा उस साधक की वाणी से किस प्रकार के पवित्र उद्गार फूट रहे हैं , इस सब को जानने के लिए हमें उपस्थान के मन्त्रों का अवलोकन करते हुए इन्हें समझना होगा |
१.  प्रियतम प्रभु के पास 
         जब हमारा यह साधक उन्नति के अंतिम शिखर पर पहुँच जाता है तो वह “देवत्रादेव” अर्थात् देवाधिदेव की समीपता को पाकर उल्लासित हो जाता है | वह उसको पाने के आनंद का अनुभव करने लगता है |
२.  प्रभु की मधुर झांकी 
        अब यह अवस्था आ जाती है कि प्रभु के प्रकाश की स्वर्णमयी किरणें  उसके गालों को , मुखमंडल को छूने लगती हैं | उस प्रभु के सौन्दर्य, सामर्थ्य , ज्ञान तथा प्रेम की और इंगित करने वाली झंडियाँ ( जिन्हें कटवा कहते हैं ) अपने हाथों में लेते हुए साधक उस पिता के व्योमचुम्बी अथवा गगनचुम्बी महलों में पहुँच जाता है | अब प्रभु से उसकी आँखे चार हो रही हैं | प्रभु से मिलन की ख़ुशी में उसकी आँखों से स्नेह पूर्ण अश्रु की अविरल धारा बह रही है | 
३.  परभु के साक्षात् दर्शन 
       अब तक साधक और प्रभु में आँख मिचौली हो ली | विरत प्रभु अब अपने रूप को साधक के सामने अनावृत कर रहे हैं | साधक की पलकों में प्रभु के प्रकाश की मधुर ज्योति समा रही है | प्रभु की इस ज्योति से सम्पूर्ण प्रथिवी आच्छादित दिखाई दे रही है | जो देखा गया है बस उसे ही “चित्रम्” कहा गया है |
४.  प्रभु मिलन 
       प्रभु उपासना में रत साधक “ देवहितं” अर्थात् सब का हित चाहने वाले प्रभु के चरणारविन्दों में अपना मस्तक झुकाते हुए इन्हें अपनी छाती से लिपटा लेता है | अब उसे अनुभव होता है कि जिस अमूल्य निधि को पाने के लिए वह प्रयास कर रहा था , वह अमूल्य निधि ( प्रभु चरण ) उसे मिल गई है | अब वह पूर्णतया अदीन बन गया है | भाव यह है कि वह अब सब प्रकार के ऐश्वर्यों का स्वामी हो गया है | इस का कारण यह है कि उसके ह्रदय में उसे इस प्रकार का आनंद प्राप्त हो गया है कि जिसका वह शब्दों द्वारा वर्णन नहीं कर सकता |