“सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, अजन्मा एक ईश्वर ही सबका का उपासनीय है”

“सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, अजन्मा एक ईश्वर ही सबका का उपासनीय है”

“सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, अजन्मा एक ईश्वर ही सबका का उपासनीय है”

ओ३म्
“सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, अजन्मा एक ईश्वर ही सबका का उपासनीय है”
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मनुष्य का अस्तित्व अपने माता व पिता के द्वारा होता है। माता-पिता भी इस सृष्टि के नियमों का पालन करते हुए सन्तानों को प्राप्त करते व सृष्टि की आदि से चली आ रही परम्पराओं का निर्वहन करते हुए उनका पालन व पोषण करते हैं। माता-पिता सन्तान को जन्म देने में निमित्त कारण नहीं होते। मनुष्य का जन्म तो अनादि निमित्त कारण परमात्मा के द्वारा ही होता है। उसी को संसार में विद्यमान अनन्त आत्माओं के सत्यस्वरूप सहित उनके जन्म जन्मान्तर के कर्मों व उसके अनुसार उन्हें किस योनि में जन्म देना है, इसका ज्ञान होता है। आत्माओं के प्रारब्ध व पूर्व कर्मों के अनुसार ही परमात्मा जीवात्माओं को उसके योग्य माता-पिताओं के माध्यम से जन्म देता है। मनुष्य को स्त्री व पुरुष जो भी शरीर प्राप्त होता है, वह परमात्मा की ओर से हमें एक अनमोल देन व उपहार होता है। यह एक ऐसी देन व दान है, जो संसार में ईश्वर के अतिरिक्त और कोई नहीं करता। मनुष्य जन्म पाकर मनुष्य व सन्तान यदि किसी की सबसे अधिक ऋणी व कृतज्ञ होती हैं तो वह परमात्मा है और उसके बाद माता व पिता का स्थान होता है। मनुष्य को जन्म के बाद शारीरिक पोषण सहित बुद्धि के विकास के लिए सद्ज्ञान की आवश्यकता होती है। यह सद्ज्ञान परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को अपनी सर्वव्यापकता तथा जीवात्मा की आत्मा में निहित व विद्यमान जीवस्थ स्वरूप से शुद्ध व पवित्र आत्मा वाले इन ऋषियों को दिया था और इनको प्रेरणा कर सृष्टि के अन्य स्त्री पुरुषों को कराया था। यहीं से वेद ज्ञान के अन्य मनुष्यों को देने वा वेद प्रचार की परम्परा का आरम्भ हुआ था। 

सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों की बुद्धि अत्यन्त शुद्ध एवं पवित्र होती थी जिससे उनकी स्मरण शक्ति आज के मनुष्यों की तुलना कहीं अधिक उत्कृष्ट व उत्तम थी। समय के साथ मनुष्य की स्मरण शक्ति में न्यूनता आई है। अतः मनुष्य की ज्ञान प्राप्ति की सामथ्र्य को देखते हुए ऋषियों ने इतिहास सहित वेद ज्ञान की व्याख्या में उपनिषद एवं दर्शन सहित मनुस्मृति आदि ग्रन्थ व विधान बनाये हैं। हमारी संस्कृति पर मानवता के शत्रुओं ने अनेक आक्रमण किये और हमारी सांस्कृतिक धरोहरों को नष्ट किया। सौभाग्य से हमारे पूर्वज वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत, आयुर्वेद के ग्रन्थ चरक तथा सुश्रुत सहित अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों को बचाने में सफल हुए और आज हमें विपुल वैदिक साहित्य प्राप्त होता है। इस कार्य के लिए हम व संसार के सभी लोग वैदिक धर्मी पूर्वजों के ऋणी हैं। यदि यह ग्रन्थ व इनमें निहित ज्ञान सुलभ न होता तो आज हम ईश्वर, जीव व सृष्टि के सत्यस्वरूप सहित मनुष्य के कर्तव्यों एवं अकर्तव्यों के विषय में पूर्णरूपेण परिचित नहीं हो सकते थे। हम सौभाग्यशाली हैं जो ऋषियों की भूमि आर्यावर्त वा भारत में जन्म लेकर वैदिक धर्म व इसमें उपलब्ध अमृत ज्ञान के भण्डार को प्राप्त करने के अधिकारी बने हैं। इसके लिए हम अपने माता-पिता सहित ईश्वर के ऋणी हैं। इसके लिए हमें प्रातः सायं प्रतिदिन ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव का ध्यान करते हुए उसकी उपासना करनी चाहिये और वेद ज्ञान के अनुसार अपने जीवन को बनाना चाहिये। इसके साथ ही हमें अपने माता पिता व उनके ऋणों को भी स्मरण करते हुए स्वयं एक अच्छा माता व पिता बनकर उनके ऋण को उतारने का प्रयत्न भी करना चाहिये। ऐसा करके ही हम सच्चे व उपयोगी मनुष्य बन सकते हैं और मनुष्य जन्म के उद्देश्य ईश्वर साक्षात्कार व इससे अमृतमय मोक्ष वा मुक्ति को प्राप्त हो सकते हैं। 

हम ईश्वर को क्यों जाने व उसकी स्तुति करें, इसका उत्तर यही है कि ईश्वर के अनादि काल से प्रत्येक जीवात्मा वा मनुष्य पर अगणित ऋण व उपकार हैं। उन ऋणों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए हमें ईश्वर को जानना व उसकी स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना करनी होती है। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे व जो लोग ऐसा नहीं करते, वह कृतघ्न होते हैं। कृतघ्न होना सबसे निन्दित कर्म व पाप होता है। जिस ईश्वर ने जीवात्माओं व मनुष्यों के लिए इस संसार की रचना की, उसे अनादि काल से उसके कर्मानुसार जन्म देता आ रहा है, जिसने मनुष्यों के सुख व आत्मा की उन्नति सहित मोक्ष प्राप्ति के लिए वेदों का ज्ञान दिया, जो अतीत में हमारा पालक रहा है और अब भी पालन कर रहा है, उसका उपकार भूल जाना, उसका कृतज्ञ न होना व उसके उपकारों के लिए उसका धन्यवाद वा स्तुति, प्रार्थना व उपासना न करना अक्षम्य कृतघ्नता है। इस कृतघ्नता को जानने के लिए हमें विचार करना चाहिये कि यदि किसी माता-पिता की सन्तान अपने माता-पिता के साथ आदर व प्रेम का व्यवहार न करें, उनकी अवज्ञा करें, उनकी सेवा-सुश्रुषा न करें तो माता-पिता को उस सन्तान के प्रति दुःख व उपेक्षा का भाव उत्पन्न होगा, ऐसा ही कुछ ईश्वर को भी हो सकता है। ईश्वर सर्वज्ञानी व सर्वशक्तिमान है, वह आप्त काम है, उसे जीवों से अपने स्तुति, प्रार्थना व उपासना की आवश्यकता नहीं है, वह इस कारण से कुपित भी नहीं होता परन्तु ईश्वर को जानने व उसकी विधि पूर्वक उपासना करने वाले मनुष्य को जो सुख व लाभ प्राप्त होते हैं, उनसे ईश्वर को न जानने वाला और वेद में दी गई ईश्वर की आज्ञाओं को न मानने वाला मनुष्य, उस सुख व परजन्म की उन्नति से वंचित हो जाता है। हम जिन पशु पक्षियों व इतर योनियों के प्राणियों को देखते हैं, उन्हें देखकर हमें यह अनुभव होता है कि यह वह आत्मायें हो सकती हैं जिन्होंने अपने पूर्वजन्मों में मनुष्य जीवन प्राप्ति का अवसर मिलने पर भी ईश्वर को जानने व प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं किया था। अतः ईश्वर को जानना व उसकी उपासना करना मनुष्य का सत्कर्तव्य सिद्ध होता है। 

मनुष्य का जीवात्मा अनादि व अनन्त काल तक रहने वाली अल्पज्ञ एवं ससीम सत्ता है। इसे तो हर काल व परिस्थिति में रहना ही है। इसकी सबसे उत्तम अवस्था सृष्टि काल में तब होती है जब ये मनुष्य योनि में रहकर वेदज्ञान प्राप्त कर रहा होता है व उसको अधिकांश रूप में प्राप्त कर लेता है। ऐसा करके उसे ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति वा सृष्टि सहित अपने कर्तव्यों व अकर्तव्यों का यथार्थ बोध हो जाता है। ऐसा मनुष्य भौतिक पदार्थों का अल्प मात्रा में सुख भोगने के साथ ईश्वर की उपासना से भी सुख व आनन्द का भोग करता है। इस अवस्था को मनुष्य व जीवात्मा की उत्तम अवस्थायें कह सकते हैं। इसके लिए सभी मनुष्यों को प्रयत्न करने चाहिये। जो ऐसा करते हैं वह सौभाग्यशाली कहे जा सकते हैं और जो ऐसा नहीं करते वह हतभागी ही हो सकते हैं। ऋषि दयानन्द की कृपा से आज सबको वेदों का ज्ञान सुलभ है। वेदों के प्रमुख ऋषियों के ग्रन्थ भी सुलभ हैं जिन्हें भाष्यों के माध्यम से पढ़कर भी हम उन ऋषियों के विचारों व भावनाओं से परिचित हो सकते हैं। भाग्यशाली मनुष्य वेद व वैदिक साहित्य से लाभ उठाता है। सन्ध्या तथा दैनिक यज्ञों सहित वृहद यज्ञों के अनुष्ठान करता है। मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक भौतिक वस्तुओं का न्यूनमात्रा में उपयोग करता है तथा समाज के अन्य लोगों को वेदों की शरण में लाने के लिए प्रयत्न करता है। ऐसे लोगों का ही जीवन धन्य होता है। ऐसे लोगों को परमात्मा की कृपा से जन्म जन्मान्तर में उनके कर्मों के अनुरूप सुख रूपी फल अवश्य मिलता है। ऐसा ज्ञान वेद व ऋषि दे गये हैं। हमें ऋषियों की शिक्षाओं को जानकर उन पर विश्वास करते हुए उन्हीं के मार्ग पर चलना है और वेदधर्म व वेद संस्कृति की रक्षा के लिए प्राणपन से समर्पित होकर जीवन व्यतीत करना है। इसी को श्रेष्ठ मानव जीवन कहा जा सकता है। 

वर्तमान जीवन में हमें वेदों की शिक्षाओं, मान्यताओं व सिद्धान्तों से परिचित कराने वाली एवं समस्त वैदिक साहित्य को निष्कर्ष व नवनीत रूप में प्रस्तुत करने वाली ऋषि दयानन्द की अमर पुस्तक सत्यार्थप्रकाश सुलभ है। हमें इस पुस्तक का जीवनभर अध्ययन करते रहना चाहिये। ऐसा करने से हमें इस जन्म व परजन्मों में अनेक लाभ व सुख प्राप्त होंगे। हमें अपनी सन्तानों व अपने कुल में इस परम्परा को भी स्थापित करना चाहिये कि उन्हें प्रतिदिन सत्यार्थप्रकाश का प्रतिदिन कुछ समय पाठ व अध्ययन अवश्य करना है। यदि सभी आर्य व हिन्दू ऐसा करेंगे तभी हमारा धर्म व संस्कृति बच सकती है। हम अपने कर्तव्यों से परिचित हो सकते हैं और हम ईश्वर, धर्म तथा संस्कृति सहित संसार में प्रचलित विद्या तथा अविद्या से परिचित हो सकते हैं। हम आर्य हिन्दुओं ने विगत 145 वर्षों में जितना इस ग्रन्थ का अध्ययन व प्रचार किया है उससे देश, धर्म एवं संस्कृति को मजबूती मिली है और जितनी इस ग्रन्थ की उपेक्षा हुई है, उतनी ही धर्म व संस्कृति की हानि हुई है। हमें सत्यार्थप्रकाश रूपी विद्यामयी अमृत ग्रन्थ का अध्ययन एवं प्रचार करने का व्रत लेना चाहिये। इसी से हमारा धर्म एवं संस्कृति सुरक्षित रह सकते हैं। 

परमात्मा, माता-पिता तथा वेद के आचार्यों के हमारे जीवन पर कोटि कोटि उपकार हैं। यह सब हमारे सम्मान के पात्र हैं। उपासना तो हम ईश्वर की हर काल में कर सकते हैं। अपने जीवित माता, पिता तथा आचार्यो की भी हम स्तुति, प्रार्थना व उपासना कर सकते हैं। ईश्वर की उपासना से हम सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान व अपने शाश्वत माता-पिता, आचार्य से जुड़ जाते हैं जिससे हमें धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष प्राप्त होते हैं। इन लाभों की प्राप्ति के लिये हमें प्रतिदिन प्रातः व सायं न्यूनतम एक एक घण्टा वैदिक रीति से उपासना अवश्य करनी चाहिये। यदि हम सब ऐसा करते हैं तो हम धार्मिक कहला सकते हैं अन्यथा शाब्दिक ज्ञान अधिक उपयोगी नहीं होगा। ज्ञान के अनुरूप आचरण करना ही मनुष्य की उन्नति व लक्ष्य प्राप्ति में सहायक होता है। आईये वेदाध्ययन का व्रत लें। सत्यार्थप्रकाश का भी हम नियमित पाठ व स्वाध्याय करें। दिन में दोनों समय ईश्वर की उपासना व वैदिक साहित्य का स्वाध्याय करें जिससे कृतज्ञता से बचें और सुखी हों  हमारा वैदिक धर्म एवं संस्कृति भी बचे और चिरस्थाई हो। ओ३म् शम्। 

-मनमोहन कुमार आर्य 

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