शून्य का सच 

शून्य का सच 

शून्य का सच 

अध्ययन करें व समझे व अन्य को समझाएं।

              सोसल मीडिया में एक पोस्ट चल रहा है कि यदि आर्यभट्ट ने शून्य का आविष्कार किया था, तो रावण के दस सिरों की गणना कैसे हुई थी ? महाभारत काल मे कौरवों के 100 भाइयों की गणना कैसे हुई थी ? ऐसा कहने वालों का मत है कि जब 5वीं शताब्दी में आर्यभट्ट ने शून्य का आविष्कार किया तो,रामायण, महाभारत, इसके बाद ही लिखी गयी है और यदि इसके सैकड़ों साल पहले अगर लिखी गयी है तो सिद्ध किया जाय कि आर्य भट्ट ने शून्य का आविष्कार नहीं किया था.

दर असल सोसल मीडिया में लोग ज्ञान वर्धन नहीं करते, मनोरंजन करते हैं और हिन्दू धर्म को हेय दिखाने की कोशिश करते हैं। आरक्षण से नौकरी प्राप्त लोगों ने ये विवाद जन्म दिया है। मुख्य विवाद शून्य और दस की संख्या का है। विश्व मे कहीं भी पहले मन मे भाव आये।भाव से शब्द बने। अंक तो गणना के लिए बाद में प्रतीकों के रूप में आये। जिस समय जितनी समझ थी, उसी प्रकार प्रतीक बनाकर, उसे ही अंक मानकर गणना किया गया।

भारत मे संस्कृत ज्ञात सबसे प्राचीन भाषा है। संस्कृत में गणना के मूल शब्द शुन्यम,एकः एका एकम, द्वौ दवे, त्रयः त्रीणि, चत्वारः, पंच, षष्ठ, सप्त, अष्ट, नव, दस, शत, ये सब प्रारम्भ से रहे हैं। ऋग्वेद में पुरुष सूक्त में सहस्र सिर,सहस्र आंख,सहस्र पैर,दस अंगुल शब्द लिखे हैं। यजुर्वेद से निकले ईश उपनिषद में सौ वर्ष जीने की बात लिखी है। अथर्व वेद में सौ शरद जीना लिखा है। पाणिनि ने अष्टअध्यायी में अंकों के शब्द रूपों का सूत्र भी लिखा है। ये सब आर्यभट्ट से बहुत पहले हुए हैं। इसका मतलब भारत मे गणना के अंक शब्दों में थे। बाद में अलग अलग समय पर इन शब्दों के लिए प्रतीकों से गणना किया गया तो जब शब्द थे तो रावण के दस सिर व कौरव के सौ पुत्र निश्चित रूप से गिने गए होंगे और रामायण महाभारत आर्य भट्ट से बहुत पहले लिखा गया होगा। हाँ उस समय शून्य अंक नहीं रहा होगा।

यह शून्य आर्य भट्ट से पहले ही था। शून्य दार्शनिक विचारों में हर समय रहा है। शून्य का मतलब ब्रह्म होता है। आर्य भट्ट से पहले नागार्जुन का शून्यवाद आ गया था। आर्य भट्ट ने शून्य का आविष्कार नहीं, शून्य पर आधारित दाशमिक प्रणाली दिया था। एक बात और जान लेना चाहिए कि पाश्चात्य चिंतन के दर्शन में पृथ्वी जल अग्नि वायु, ये चार ही मूल तत्व है। यही चार्वाक दर्शन में भी है लेकिन भारतीय वैदिक दर्शन में इनके अलावा पांचवा तत्व आकाश है .

तो जो यह आर्य भट्ट के शून्य की बात है, यह भारतीय शून्य का व्यावहारिक प्रयोग है। मतलब एक शक्ति भारत मे थी, जो दाहिनी ओर आ जाये तो शक्ति दस गुनी हो जाएगी,बाई ओर चली जाय तो निशक्त की स्थिति। इसी ब्रह्म रूप को गोलाकार शून्य प्रतीक में लाया गया और इस प्रकार भारतीय आर्यभट्ट नामक ब्राह्मण ने विश्व व्याप्त विभिन्न गणना के प्रतीकों को समाप्त कर एक कार दिया।
वेदान्त ने बताया दिया कि सबमे आत्मान एक ही है।

अगर हम शब्दों की बात करें तो आर्य भट्ट से बहुत पहले कपिल मुनि ने सांख्य में 25 तत्व बता दिया था। इसका मतलब अंकों का शब्द ज्ञान यहां शुरू से ही था तो किसी के सिरों की गणना, व्यक्तियों की गणना क्यों नहीं हो सकती थी।

अब कुछ उदारण प्रस्तुत करते हैं-

पश्येम शरदः शतम् ।।१।।

जीवेम शरदः शतम् ।।२।।

बुध्येम शरदः शतम् ।।३।।

रोहेम शरदः शतम् ।।४।।

पूषेम शरदः शतम् ।।५।।

भवेम शरदः शतम् ।।६।।

भूयेम शरदः शतम् ।।७।।

भूयसीः शरदः शतात् ।।८।।

(अथर्ववेद, काण्ड १९, सूक्त ६७)

जिसके अर्थ समझना कदाचित् पर्याप्त सरल है – हम सौ शरदों तक देखें, यानी सौ वर्षों तक हमारे आंखों की ज्योति स्पष्ट बनी रहे (१)। सौ वर्षों तक हम जीवित रहें (२); सौ वर्षों तक हमारी बुद्धि सक्षम बनी रहे, हम ज्ञानवान् बने रहे (३); सौ वर्षों तक हम वृद्धि करते रहें, हमारी उन्नति होती रहे (४); सौ वर्षों तक हम पुष्टि प्राप्त करते रहें, हमें पोषण मिलता रहे (५); हम सौ वर्षों तक बने रहें (वस्तुतः दूसरे मंत्र की पुनरावृत्ति!) (६); सौ वर्षों तक हम पवित्र बने रहें, कुत्सित भावनाओं से मुक्त रहें (७); सौ वर्षों से भी आगे ये सब कल्याणमय बातें होती रहें (८)।

ईश उपनिषद यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का उपनिषद है, जो उपनिषदों में प्रथम स्थान रखता है। इसमें दूसरे श्लोक में लिखा है-

यहाँ इस जगत् में सौ वर्ष तक कर्म करते हुए जीने की इच्छा करनी चाहिए-
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत्ँ समा:।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥2॥[

ऋग्वेद, दशम मण्डल,नब्बेवा सूक्त। पुरुष सूक्त,पहला मंत्र।

सहस्त्रशीर्षा पुरुष:सहस्राक्ष:सहस्रपात् |

स भूमि सर्वत: स्पृत्वाSत्यतिष्ठद्द्शाङ्गुलम् ||१||

जो सहस्रों सिरवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरणवाले विराट पुरुष हैं, वे सारे ब्रह्मांड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं ||१||

मुहूर्त चिंतामणि में ही एक जगह नक्षत्रों में ताराओं की संख्या बताते हुए एक श्लोक है (नक्षत्र प्रकरण, श्लोक-58)
त्रित्र्यङ्गपञ्चाग्निकुवेदवह्नयः शरेषुनेत्राश्विशरेन्दुभूकृताः |
वेदाग्निरुद्राश्वियमाग्निवह्नयोSब्धयः शतंद्विरदाः भतारकाः ||

अन्वय - त्रि (3) + त्रय(3) + अङ्ग(6) + पञ्च(5) +अग्नि(3) + कु(1) + वेद(4) + वह्नय(3); शर(5) + ईषु(5) + नेत्र(2) + अश्वि(2) + शर(5) + इन्दु(1) + भू(1) + कृताः(4) | वेद(4) + अग्नि(3) + रुद्र(11) + अश्वि(2) + यम(2) + अग्नि(3) + वह्नि(3); अब्धयः(4) + शतं(100) + द्वि(2) + द्वि(2) + रदाः(32) + भ + तारकाः ||

यहाँ थोड़ी संस्कृत बता दूं भतारकाः का अर्थ है भ (नक्षत्रों) के तारे तो यदि नक्षत्रों में तारे अश्विनी नक्षत्र से गिनें तो इतने तारे प्रत्येक नक्षत्र में होते हैं।

सन् 498 में भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलवेत्ता आर्यभट्ट ने आर्यभटीय ([ सङ्ख्यास्थाननिरूपणम् ]) में कहा है-

एकं च दश च शतं च सहस्रं तु अयुतनियुते तथा प्रयुतम्।
कोट्यर्बुदं च वृन्दं स्थानात्स्थानं दशगुणं स्यात् ॥ २ ॥
अर्थात् "एक, दश, शत, सहस्र, अयुत, नियुत, प्रयुत, कोटि, अर्बुद तथा बृन्द में प्रत्येक पिछले स्थान वाले से अगले स्थान वाला दस गुना है।

उक्त से स्पष्ट हो जाता है कि जो विवाद उछाला गया है, वह मूर्खों के प्रलाप के अतिरिक्त कुछ नहीं है। इन मूर्खों के विषय मे पहले ही भर्तृ हरि ने लिख दिया है कि इन्हें ब्रह्मा भी नहीं समझा सकते. खासकर वो मूर्ख अगर वामपंथियों के जमात से निकला हो तो.

 

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