वेदोपनिषदम् कठोपनिषद् से       

          वेदोपनिषदम् कठोपनिषद् से       

          वेदोपनिषदम् कठोपनिषद् से       


          वेदोपनिषदम्
कठोपनिषद् से       
• नचिकेता मृत्यु के पास पहुँचे;
मृत्यु ने मनुष्य-रूप धारण न किया था;
आचार्य स्वयं, मृत्यु-स्वरूप होता है;
वेद-शास्त्रों की विद्या देने से पहले 
वह कुसंस्कारों को मृत्यु देता है;
इससे आचार्य का नाम मृत्यु भी है।
• वल्ली-२, मन्त्र-२:-
श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ.....
श्रेय और प्रेय दो मार्ग हैं;
श्रेय (निवृत्ति मार्ग) श्रेष्ठ होता है;
प्रेय (प्रवृत्ति मार्ग) प्रिय लगता है;
नचिकेता ने श्रेय मार्ग अपनाया था;
सच्चे ज्ञानी और सच्चे भक्तों का 
सदैव होता, आज भी यही मार्ग है।
• वल्ली-३, मन्त्र-१४:-
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया
दुर्गं पथस् तत् कवयो वदन्ति।।
उठो, जागो;
इष्ट इच्छाओं को प्राप्त होकर जानो—
सूक्ष्मद्रष्टा लोग उस मार्ग को
छुरे की तेज धार पर चलने के समान 
अति कठिन बताते हैं।
• श्रेय मार्ग पर चलना कठिन है;
सत्य बोलने, धर्म पर चलने वाले;
मानवता को समर्पित, राष्ट्रनिर्माता,
मोक्षमार्गी, समाज-सुधारक तथा
अच्छाई की पराकाष्ठा वाले लोग 
इस श्रेय मार्ग का चयन करते हैं।
• पर्वत पर चढ़ने के समान;
चढ़कर नीचे न गिरना चाहो तो 
श्रेय मार्ग ही उचित है।
• प्रत्येक जीवात्मा एक बार,
अन्तिम बार, इसी पर चलता है।
आचार्य रूपचन्द्र ‘दीपक’।