दर्शनों का मुख्य विषय

दर्शनों का मुख्य विषय

दर्शनों का मुख्य विषय


दर्शनों का मुख्य विषय

सभी दर्शनों का मुख्य प्रतिपाद्य विषय सृष्टि प्रक्रिया का विवरण प्रस्तुत करना है।
 निश्चित है, सृष्टि (जगत्=विश्व) की रचना का प्रकार एक ही हो सकता है। ऐसी कल्पना सर्वथा निराधार होगी, सर्गादिकाल में अपने अव्यक्त कारणों से विश्व की रचना के प्रकार अनेक हों, और एक-दूसरे से भिन्न हों। इसलिए दर्शनों के जिन व्याख्याकारों ने दर्शनों में विश्व के विभिन्न उपादान कारणों का एवं उनसे उत्पाद्यमान विश्व की विभिन्न रचना-प्रक्रिया का उल्लेख उभारा है, वह संगत नहीं कहा जा सकता है। इसको वास्तविक रूप से समझने और इसके समन्वय के लिए ऋषि ने अपने अमर-ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में वह सूत्र इस प्रकार प्रस्तुत किया है-


"(पूर्वपक्ष) जैसे सत्यासत्य और दूसरे ग्रन्थों का परस्पर विरोध है वैसे अन्य शास्त्रों में भी है। जैसा सृष्टिविषय में छह शास्त्रों का विरोध है। मीमांसा कर्म, वैशेषिक काल, न्याय परमाणु, योग पुरुषार्थ, सांख्य प्रकृति और वेदान्त ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति मानता है; क्या यह विरोध नहीं है? (उत्तरपक्ष) प्रथम तो बिना सांख्य और वेदान्त के दूसरे शास्त्रों में सृष्टि की उत्पत्ति प्रसिद्ध नहीं लिखी और इनमें विरोध नहीं, क्योंकि तुमको विरोधाविरोध का ज्ञान नहीं। मैं तुमसे पूछता हूं कि विरोध किस स्थल में होता है? क्या एक विषय में अथवा भिन्न-भिन्न विषयों में? (पूर्वपक्ष) एक विषय में अनेकों का परस्पर विरुद्ध कथन हो, उसको विरोध कहते हैं, यहां भी सृष्टि का एक ही विषय है। (उत्तरपक्ष) क्या विद्या एक या दो? (पूर्वोपक्ष) एक है। (उत्तरपक्ष) जो एक है तो व्याकरण, वैद्यक, ज्योतिष आदि का भिन्न-भिन्न क्यों है? जैसा एक विद्या में अनेक अवयवों का एक-दूसरे से भिन्न प्रतिपादन होता है, वैसे ही सृष्टि विद्या के भिन्न-भिन्न छह अवयवों का शास्त्रों में प्रतिपादन करने से इनमें कुछ भी विरोध नहीं। जैसे घड़े के बनाने में कर्म, समय, मिट्टी, विचार, संयोग-वियोग आदि का पुरुषार्थ, प्रकृति के गुण और कुम्मार कारण है; वैसे ही सृष्टि का जो कर्म कारण है, उसकी व्याख्या मीमांसा में, समय की व्याख्या वैशेषिक में, उपादान कारण की व्याख्या न्याय में, पुरुषार्थ की व्याख्या योग में, तत्त्वों के अनुक्रम से परिगणन की व्याख्या सांख्य में और निमित्तकारण जो परमेश्वर है उसकी व्याख्या वेदान्त शास्त्र में है। इससे कुछ भी विरोध नहीं। जैसे वैद्यक शास्त्र में निदान, चिकित्सा, औषधिदान और पथ्य के प्रकरण भिन्न-भिन्न कथित हैं, परन्तु सबका सिद्धान्त रोग की निवृत्ति है, वैसे ही सृष्टि के छह कारण हैं। इनमें से एक-एक कारण की व्याख्या एक-एक शास्त्रकार ने की है। इसलिए इनमें कुछ भी विरोध नहीं। इसकी विशेष व्याख्या सृष्टि प्रकरण में कहेंगे।"


एवमेव पूर्व निर्देशानुसार इस विषय को अष्टम समुल्लास के सृष्टि प्रकरण-प्रसंग में इस प्रकार बताया है-

"(पूर्वपक्ष) सृष्टि विषय में वेदादि शास्त्रों का अवरोध है व विरोध? (उत्तरपक्ष) अविरोध है। (पूर्वपक्ष) जो अविरोधी है तो-
तस्माद्वा एत्तस्मादात्मन आकाश: सम्भूत:, आकाशाद्वायु:, वायोरग्नि:, अग्नेराप:, अद्भ्यः पृथिवी, पृथिव्या ओषधयः, ओषधिभ्योऽन्नम्, अन्नाद्रेतः रेतसः पुरुषः स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः।।

यह तैत्तिरीय उपनिषद् (ब्रह्मानन्द वल्ली) का वचन है। उस परमेश्वर और प्रकृति से आकाश अवकाश अर्थात् जो कारणरूप द्रव्य सर्वत्र फैल रहा था उस को इकट्ठा करने से अवकाश उत्पन्न सा होता है। वास्तव में आकाश की उत्पत्ति नहीं होती क्योंकि विना आकाश के प्रकृति और परमाणु कहां ठहर सकें? आकाश के पश्चात् वायु, वायु के पश्चात् अग्नि, अग्नि के पश्चात् जल, जल के पश्चात् पृथिवी, पृथिवी से ओषधि, ओषधियों से अन्न, अन्न से वीर्य, वीर्य से पुरुष अर्थात् शरीर उत्पन्न होता है। यहां आकाशादि क्रम से और छान्दोग्य में अग्न्यादि; ऐतरेय में जलादि क्रम से सृष्टि हुई। वेदों में कहीं पुरुष, कहीं हिरण्यगर्भ आदि से मीमांसा में कर्म, वैशेषिक काल, न्याय में परमाणु, योग में पुरुषार्थ, सांख्य में प्रकृति और वेदान्त में ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति मानी है। अब किसको सच्चा और किसको झूठा मानें?
(उत्तरपक्ष) इसमें सब सच्चे, कोई झूठा नहीं। झूठा वह है जो विपरीत समझता है, क्योंकि परमेश्वर निमित्त और प्रकृति जगत् का उपादान कारण है।... छह शास्त्रों में अविरोध देखो इस प्रकार है। मीमांसा में- 'ऐसा कोई भी कार्य जगत् में नहीं होता कि जिस के बनाने में कर्मचेष्टा न की जाय।' वैशेषिक में- 'समय न लगे विना बने ही नहीं।' न्याय में- 'उपादान कारण न होने से कुछ भी नहीं बन सकता।' योग में- 'विद्या, ज्ञान, विचार न किया जाय तो नहीं बन सकता।' सांख्य में- 'तत्त्वों का मेल न होने से नहीं बन सकता।' और वेदान्त में- 'बनाने वाला न बनावे तो कोई भी पदार्थ उत्पन्न हो न सके।' इसलिये सृष्टि छह कारणों से बनती है; उन छह कारणों की व्याख्या एक-एक की एक-एक शास्त्र में है, इसलिए उनमें विरोध कुछ भी नहीं?"
[सत्यार्थप्रकाश, अष्टम समुल्लास; पृष्ठ १८९-१९०, उक्त संस्करण]


उक्त सन्दर्भों द्वारा भारतीय दर्शनों में अविरोध प्रकट करने के लिए ऋषि ने जो सूत्र सुझाया, उसका तात्पर्य केवल इतना है कि दर्शनों के मुख्य प्रतिपाद्य विषय-सृष्टि प्रक्रिया अर्थात् सर्ग रचना के विभिन्न कारण रूप अंगों का उत्पादन एक-एक दर्शन में हुआ है; इसलिए प्रत्येक दर्शन परस्पर विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं। सर्ग रचना रूप एक ही अर्थ का विवरण प्रस्तुत करने में सबका तात्पर्य है। सर्ग रचना के प्रसंग से सर्ग के स्त्रष्टा परमात्मा का तथा भोक्ता जीवात्मा का विशद वर्णन भी दर्शनों के प्रतिपाद्य विषय में आ जाता है। इसी क्रम से भोक्ता जीवात्मा के भोग साधन देह इन्द्रिय आदि का विवरण प्रसंगानुसार दर्शनों में प्रस्तुत किया गया है।
 

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