#सच्चे गुरु का अर्थ व महत्व 

#सच्चे गुरु का अर्थ व महत्व 

#सच्चे गुरु का अर्थ व महत्व 

#सच्चे गुरु का अर्थ व महत्व 

सभी आर्य विद्वानों एवं बंधुओ को नमस्ते जी।

आप सबको गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभ कामनाएं।

सर्व प्रथम गुरु परमपिता परमेश्वर को व समग्र ब्रह्माण्ड में व्याप्त प्रत्येक गुरु सत्ता को नमन करते हुए गुरु का अर्थ व उसकी महिमा बताने का आप सबको प्रयत्न कर रहा हूँ।
कृपया लेख को पूरा पढ़े ।

!!धन्यवाद!!

गुरु महिमा

भारतीय सभ्यता और संस्कृति में गुरु की बड़ी महिमा रही है।वैसे तो दुनिया की अधिकांश सभ्यताएं अपने शिक्षकों के प्रति सदैव नतमस्तक रही हैं ,परन्तु भारत में गुरु परम्परा की जो शानदार विरासत रही है ;उसका सानी कोई नहीं।गुरुओं के प्रति इस अगाध श्रृद्धा के अनेकानेक कारण हैं।गुरुओं द्वारा स्थापित अनेक मर्यादाएं और व्यवस्थाएं आधुनिक मनुष्य की यात्रा में मील का पत्थर साबित हुई हैं; चूँकि भारतीय सामाजिक परिवेश आध्यात्मिक पगडंडियों से गुजरता हुआ अपने जीवन की यात्रा को पूर्ण करता है अतः यहाँ के जीवन मूल्यों में गुरु परम्परा और भी आत्यंतिक सन्दर्भों को आत्मसात करती है।

शिक्षक शिक्षा देता है जबकि गुरु दीक्षित करता है।दो और दो चार होते हैं इसका ज्ञान शिक्षा के अंतर्गत आता है ,परन्तु इसका समुचित उपयोग दीक्षा की परिधि में आता है।शिक्षित व्यक्ति साक्षर हो सकता है परन्तु दीक्षित व्यक्ति साक्षर होने के साथ-साथ सम्बंधित शिक्षा के समुचित उपयोग को समझता है।कहने को तो ओसामा बिन लादेन भी इंजिनियर था,लेकिन यहाँ दीक्षा के अभाव की अतिशयता ने मानवीय मूल्यों के बजाय उसे विध्वंश को और उत्प्रेरित किया जबकि अनपढ़ कबीर की देशनाएँ आज सैंकड़ों साल बाद भी मानवीय मन का संबल बनी हुईं हैं।जो कभी विद्यालय नहीं गया, आज देश और दुनिया के अनेक विश्वविद्यालय कबीर के नाम पर अपने यहाँ शोध कार्यों पर गौरवान्वित अनुभव करते हैं।ओसामा आज की शिक्षा का कुरूप चेहरा है, तो कबीर का व्यक्तित्व गुरु रामानंद के श्री चरणों का प्रसाद।जहाँ तराशा गया मन सभी के कल्याण की चिंता करता है।तभी तो कबीर ने अपने गुरु को ईश से भी प्राथमिक माना और कहा –

‘गुरु- गोविन्द दाऊ खड़े काके लागो पाय,

बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय।।‘

भारत देश की अपनी अनन्य विशेषताएं हैं दीक्षा का विचार सर्वप्रथम भारतीय ऋषियों को सूझा।भारतीय ऋषियों ने अपने शिष्यों को शिक्षित करने के बजाय दीक्षित करने पर ज़ोर दिया।दीक्षा संस्कारों और सम्यक चेतना का एक ऐसा वैचारिक सम्मिश्रण हैं, जहाँ व्यक्तित्व मानवीय मूल्यों का प्रहरी होकर जीवन कर्तव्यों के पथ पर अग्रसर होता है।आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में विश्वविद्यालयों में दीक्षांत समारोह आयोजित करने के पीछे यही उद्देश्य था कि विद्यार्थी जब शिक्षालयों से पढ़कर बाहर जाएँ, तो वे ज्ञान और मानवीयता का ऐसा सुन्दर नमूना हों ; जिस पर आने वाली पीढ़ियाँ गर्व कर सकें।जो अपनी शिक्षा के आधार पर एक ऐसे समाज के निर्माण में सहयोगी हों ,जो दुनिया को उतनी समुन्नत और खुशहाल बनाने में योगदान दें सकें ,जितना की उनसे पूर्व उपलब्ध ना थी । 

जो गुरुकुल में विषयक ज्ञान के अधिष्ठाता थे वे ‘आचार्य‘ कहलाये।
जिन्होंने उपलब्ध ज्ञान से आगे के ज्ञान का मार्ग प्रशस्त किया उन्हें ‘ऋषियों‘ की संज्ञा दी गई।
स्वयं में ही स्थितप्रज्ञ योगी ‘संन्यास‘ के पात्र बने जबकि मंदिर और मठों में कर्मकांडी शास्त्रीगण पुजारी महंत या पुरोहित कहलाये।
‘ब्राह्मण‘ का शाब्दिक अभिप्राय है ‘ब्रह्म‘ + ‘अणु‘  ,जिस व्यक्ति के जीवन में ईश्वरीय गुणों का समावेश हो, वही ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी था।
ऐसे ही ‘पंडित‘ शब्द  पांडित्य से आया है ,जिसका भावार्थ है ;किसी भी विषय का सर्वोच्च ज्ञान रखने वाला व्यक्ति। सार्थक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु निश्चित नियमों के अंतर्गत साधना करने वाले ‘साधक‘और ‘सिद्ध ‘ बने, तो तंत्र की वाममार्गी शाखा के अनुयायी ‘अघोरी‘ या ‘औघड़‘कहलाये।

मन के मालिक और तन की आवश्यकताओं को जीतने वाले ‘मुनि‘ थे।शारीरिक ज़रूरतों और सांसारिक वस्तुओं के मोह से ऊपर उठकर एक लक्ष्य बिंदु को आत्मसात करने वाले ‘तपस्वी‘बने। यहाँ गुरुओं की इन श्रेणियों के पीछे एक बात समान थी।सभी के समग्र कल्याण की कामना और उसके समुचित उपाय।स्वामी विवेकानंद कहा करते थे –‘अच्छा गुरु ही अच्छा योगी हो सकता है, और अच्छा योगी ही उपयोगी हो सकता है।”

गुरु परम्परा को अतिशय मान तब मिला, जब भारत में एक दिव्य संत नानक के जीवन और कार्यों की सुरभि सर्वत्र सुवासित हुई।उन्हें सभी धर्मों ने बहुत माना।हिन्दू धार्मिक गुरु के रूप में वे मक्का -मदीना की यात्रा करने वाले अंतिम व्यक्ति थे।‘शिष्य‘ शब्द भी गुरु शब्द का परिपूरक है।शिष्य ‘शीश’ शब्द से आया है, जिसका एक अर्थ ‘सिर‘ भी है।अर्थात जो अपने शीश तक को काटकर गुरु को अर्पित करने का भाव रखता हो, वही वास्तविक शिष्य है।‘सिख‘ शब्द जो आज एक प्रतिष्ठित धर्म की मान्यता रखता है, शिष्य शब्द का ही अपभ्रंश है।विभूतियों के नाम से आगे गुरु शब्द लगाने की परम्परा भी गुरु नानक देव के बाद ही शुरू हुई।यही नहीं इस शब्द को इतना अधिक पवित्र और दिव्य माना गया की सिख धर्म के सर्वोच्च ज्ञान समुच्चय को ”गुरु ग्रन्थ साहिब ‘के नाम से जाना जाता है।

गुरुओं की स्तुति और समादर में भारतीय ग्रन्थ भरे पड़े हैं।गुरु महिमा में कहा गया है कि –

”गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देवो महेश्वरा 

गुरुर साक्षात् परब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः।”

कालिदास विश्व के विख्यात कवि कहलाये।परन्तु प्रारंभ में वे मूर्ख,निरक्षर और अबोध व्यक्ति के रूप में जाने जाते थे।जब उनकी पत्नी ने उन्हें महल से धक्का देकर बाहर निकाल दिया तो संयोगवश मार्ग में उन्हें विख्यात योगी कालीचरण के दर्शन हुए।गुरु ने कालीदास  से कहा  कि तुम निरक्षर हो अतः तुम स्वाध्याय तो नहीं कर पाओगे, मैं तुम्हें मंत्र दीक्षा के माध्यम से अभीष्ट सिद्धि का मार्ग बता सकता हूँ।तीन महीने के तप के बाद उनकी सेवा और साधना से प्रसन्न होकर गुरु कालीचरण ने उन्हें ”शाम्भवी दीक्षा ” प्रदान की।जिससे कालिदास के भीतर का ज्ञानदीप प्रदीप्त हो उठा।कंठ से वाग्देवी प्रकट हुई ,और स्वतः काव्य उच्चारित होने लगा।कालांतर में कालिदास अद्वितीय कवि बने , उनके द्वारा रचित काव्य ‘कुमार संभव‘,’मेघदूत‘ और ‘ऋतुसंहार‘ का दुनिया भर में कोई मुकाबला नहीं है। गुरुओं में आदिगुरू शंकराचार्य जी व गुरु गोरक्षनाथ जी का नाम विशेष विख्यात है ।

आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती जब मथुरा में चक्षुहीन दंडीस्वामी गुरु विरिजानंद को अपना गुरु बनाने के लिए उनकी झोपड़ी के द्वार पर पहुंचे, तो भीतर से गुरु की आवाज़ आई- ‘कौन ?’ तब दयानंद का प्रतिउत्तर था –‘यही तो जानने आया हूँ ?’  वस्तुतः वास्तविक गुरु को खोजने के लिए वास्तविक शिष्य का होना बहुत ज़रूरी है।एक सच्चा शिष्य ही सच्चा गुरु हो सकता है।सम्बुद्ध गुरु शिष्य का समग्ररूपेण रूपांतरण करता है।यानि व्यक्ति ‘गुरु पूर्व’ और ‘गुरु पश्चात’इन दोनों श्रेणियों को पार करने के लिए बहुत सी विधियाँ और नीति –नियम है ,जो प्रत्येक गुरु अपनी परम्परा के अनुसार तय करता है।

गुरु का अर्थ

गुरु शब्द "गृ" धातु से सिद्ध होता है । "यो धर्मान शब्दान् गृणात्युपदिशति" अर्थात् जो सत्यधर्म प्रतिपादक, वेद विद्या का उपदेश करनेवाला हो वह गुरु है । गुरु आप्त पुरुष होता है । वह प्रत्यक्ष, अनुभूत, अनुमान प्रमाण तथा शब्द प्रमाण (वेद) अनुसार उपदेश करनेवाला होता है । वह सत्यविद्या युक्त होकर अपने आचरण तथा सदुपदेश से शिष्य (जन समाज) का आलोक - परलोक सुधारनेवाला होता है । 
महर्षि दयानंद सरस्वती के मंतव्य अनुसार जो सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग कराए वह गुरु है । अज्ञान रूपी अंधकार को चीर कर ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाएं उसे गुरु कहते है । गुरु वेद आदि सत्यविद्या का यथार्थ दर्शन करानेवाला होता है ।

योगदर्शन १/२६ कहता है 

सूत्र

स एष: पूर्वेषाम् अपि गुरु: कालेनानवच्छेदात्

अर्थ

वह परमात्मा पूर्व में जो भी गुरु उत्पन्न हुए और आगे जो भी होंगे, उन गुरुओं का गुरु है, वह काल के द्वारा मृत्यु को प्राप्त नहीं होता । 

हमारा प्रथम गुरु परमात्मा है । आदि गुरु, सच्चा गुरु, परम गुरु, सभी का गुरु केवल एक ही परमात्मा है, जो कभी क्लेश, कर्म, विपाक आदि के बन्धन में आता नहीं । परम गुरु कालातीत है मुख्य रूप से उनको गुरु बनाना चाहिए । परम गुरु का आश्रय हमारा पूर्ण हित करनेवाला होता है । पूर्ण विश्वसनीय परमात्मा से कभी अन्याय, छल, कपट अथवा धोखा नहीं होता है । अपना जीवन उसकी आज्ञानुसार अनुशीलन करने में लगा देना चाहिए ।

 दूसरा गुरु मां है । उसने हमे जन्म दिया, पालन तथा निर्माण किया । संसार में सबसे बड़ा पूण्य काम माँ को संतुष्ट करना है, सेवा करना है, प्रसन्न रखना है । जिसकी माता विदुषी है, वह मनुष्य बहुत भाग्यवान है । माँ को गुरु बनाओ । माँ से अच्छे अच्छे गुण प्राप्त करो । मां यही चाहती है कि अपनी संतान सुखी रहे, स्वस्थ रहे, सुरक्षित रहे ।  माता अपने संतान के लिए कभी भी कुमाता नहीं बन सकती । अपनी संतान के हित के लिए वह कुछ भी करती है ।

  तीसरा गुरु हमारा पिता है । पिता अपनेआप को भूलकर संतान का पालन - पोषण-रक्षण आदि करता है । पिता संतान के प्रति ज्यादा प्यार जचाता नही, किन्तु अपनी संतान खुद से भी बहुत आगे निकल जाए और सुखी, समृद्ध, ऐश्वर्यशाली बन जाए ऐसी भावना बनाए रखता है । वह उपर से कठोर, किन्तु अंदर से कोमल होता है । वह सदा हमारा हित ही करता है ।

  केवल माता तथा पिता की छाया मिल जाय, तो भी मनुष्य का सर्वांगी विकास नहीं होता । परम गुरु तक पहुंचने के लिए एक या अधिक सांसारिक गुरु बनाने की आवश्यकता रहती है ।

गुरु के गुण

 जो वित्तेषणा, पुत्रेषणा और लाेकेषणा - तीनों एषणाओं से मुक्त हो, जो योगानुष्ठान करनेवाला हो, जो वेद और ईश्वर पर पूरी निष्ठा रखकर जीवन जीनेवाला हो ऐसे श्रेष्ठपुरुष को गुरु पद पर स्थापित करना चाहिए ।

    जो तत्वदर्शी हो, तीन अनादि पदार्थ को ठीक ठीक जाननेवाला हो । उसे गुरु पद पर स्थापित करना चाहिए । गुरु धीर होता है । सदाचारी होता है । ऋतस्य गोपा: अर्थात् सनातन सत्य वेद का रक्षक तथा उपदेशक होता है । गुरु के रूप में उसे स्वीकारना चाहिए जो स्वार्थ वृत्ति से पर हो, पारमार्थिक हो । अधिकतम सकाम कर्मी न हो, निष्काम कर्म करनेवाला हो ।

   सच्चा गुरु पक्षपात रहित न्यायकारी होता है । बीड़ी, सिगरेट, गांजा, चरस, तमाकु, मद्य, मांस आदि तथा तामसिक - अभक्ष्य खान पान न करनेवाला  बनाना चाहिए ।

    सच्चा गुरु आस्तिक, श्रद्धावान, वेद, दर्शन आदि आर्ष शास्त्रों को पढ़ानेवाला होता है । वह सत्य ज्ञान का ग्राहक तथा उपदेशक होता है । वेद, यज्ञ तथा योग विद्या का वह प्रचारक होता है । गुरु सत्यमानी, सत्यभाषी और सत्यकारी होता है ।

सच्चे गुरु को प्रमाण पूर्वक परीक्षित करके जीवन में प्रतिष्ठित करना चाहिए । हमे भी उत्तम शिष्य बनना चाहिए । यदि हम अच्छे उत्तम शिष्य, गुरु के मार्गदर्शन अनुसार अनुशीलन करनेवाले नहीं बनेंगे तो वह क्यों अपनी शक्ति, सामर्थ्य और समय का बेकार खर्च करे ? 

     प्रत्येक मनुष्य को सच्चे गुरु की आज्ञा का अनुसरण पूरी निष्ठा और पुरुषार्थ से करना चाहिए । स्वाध्याय तथा पठन - पाठन में जरा भी प्रमाद नहीं करना चाहिए । गुरु में स्थित ज्ञान सीधे सीधी अपनी बुद्धि ग्रहण कर सके ऐसी उत्कंठा रखनी चाहिए तथा ज्ञान ग्रहण करने का सावधानी से पूरा प्रयास करना चाहिए । हम शिष्य सदा के लिए शिष्य न बने रहे, किन्तु वैदिक विद्वान और उपदेशक बनने का प्रयत्न करना चाहिए । हम विद्वान के साथ धार्मिक, सदाचारी तथा विनम्र बने रहे तथा हम गुरु के संकल्प को पूरा करनेवाले बने रहे ।

 

हमारे जीवन में गुरु का महत्व माता-पिता के सामान ही है, और एक ही जीवन में हम एक अथवा अनेक गुरुजनों से मिलते हैं और ज्ञान ग्रहण करते हैं। जीवन को सद्मार्ग पर ले जाने वाला और एक सही दिशा देने में गुरु का ही सर्वोत्तम स्थान है, इसलिए तो कहा गया है कि:-

 

गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है, गढि गढि काढैं खोट।

अंतर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट ।।

 

अर्थ

गुरु कुम्हार है और शिष्य मिट्टी के कच्चे घड़े के समान है। जिस तरह घड़े को सुंदर बनाने के लिए अंदर हाथ डालकर बाहर से थाप मारता है ठीक उसी प्रकार शिष्य को कठोर अनुशासन में रखकर अंतर से प्रेम भावना रखते हुए शिष्य कि बुराईयों को दूर करके संसार में सम्मानीय बनता है।

आज हमें आदिगुरू शंकराचार्य, गुरु दत्तात्रेय ,गुरू गोरक्षनाथ व स्वामी विरजानंद जी जैसा गुरु और स्वामी दयानंद जी जैसा शिष्य चाहिए, तभी समाज उन्नति कर सकता है और इस अंधकारमय ज्ञान, पाखंड और अंधविश्वास से बाहर निकल सकता है।

 जय आर्य जय आर्यावर्त
#जयपरमपितापरमेश्वर ओ३म्
#ॐसच्चिदानंदपरमात्मने_नमःओ३म्स्रोत।    -  वेद।
लेखक   -  महर्षि दयानन्द स्वामी।
प्रस्तुति  - *वेद वरदान आर्य 

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