असली निर्धन वह है जो श्रद्धा से विद्वान अतिथि की सेवा नहीं करता”

असली निर्धन वह है जो श्रद्धा से विद्वान अतिथि की सेवा नहीं करता”

असली निर्धन वह है जो श्रद्धा से विद्वान अतिथि की सेवा नहीं करता”

ओ३म्
“असली निर्धन वह है जो श्रद्धा से विद्वान अतिथि की सेवा नहीं करता”
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मनुष्य समाज में शिक्षित, अशिक्षित, संस्कारित-संस्कारहीन तथा धनी व निर्धन कई प्रकार के लाग देखने को मिलते हैं। सभी सोचते हैं कि धनवान वह होता है जिसके पास प्रचुर मात्रा में चल व अचल धन-सम्पत्ति होती है। निर्धन उसे माना जाता है जो आर्थिक दृष्टि से कमजोर होता है। यह बात पूरी तरह से सत्य नहीं है। हमारे शास्त्र तथा वैदिक विद्वान उस व्यक्ति को निर्धन मानते हैं जो विद्वान तथा देश व समाज के हितैषी अतिथि की श्रद्धापूर्वक सेवा नहीं करता। आर्यसमाज के उच्च कोटि वैदिक विद्वान पं. विशुद्धानन्द मिश्र ने संस्कृत काव्य में उसके हिन्दी अनुवाद सहित एक लघु पुस्तक ‘प्रश्नोत्तर-मंजरी’ लिखी है। पंडित जी वेद-वेदांग के विद्वान थे। अपने वैदिक ज्ञान के आधार पर उन्होंने इस पुस्तक में श्लोक दिया है है जिसके शब्द हैं ‘गीता च का निर्धनता नराणाम्? न श्रद्धया सत्कुरुतेऽतिथिं वै। को भाग्यशाली गदितः पृथिव्याम्? यद् गेहमायाति बुधोऽतिथिर्हि।।’ इसका अर्थ है ‘मनुष्य की निर्धनता क्या है? जो श्रद्धा से अतिथि-सेवा नहीं करता। पृथिवी पर भाग्यशाली कौन है? जिसके घर विद्वान् अतिथि आता है।’ इस श्लोक के अर्थ पर विचार करते हैं तो हमें इसमें कही कई बात पूर्णतः सत्य प्रतीत होती है। वह व्यक्ति धनी नहीं जो धन का सदुपयोग नहीं करता। इस कारण उसे निर्धन ही कहना उचित होता है। धनी वही है जो धन का धर्म व परोपकार आदि कार्यों में दान व व्यय करता है तथा अहंकाररहित तथा विनम्र स्वभाव वाला हो। 

महर्षि दयानन्द जी के जीवन में एक उदाहरण मिलता है। स्वामी जी किसी स्थान पर गये हुए थे। वहां एक नाई के मन में श्रद्धा जागी और उसने स्वामी जी को भोजन कराने का निर्णय किया। नाई के पास स्वामी जी को स्वादयुक्त भोजन कराने के साधन नहीं थे। उसने बड़ी श्रद्धा से दो रोटियां बनाई और स्वामी जी के पास जा पहुंचा। उसने स्वामी जी से उसके द्वारा लाये गये भोजन को स्वीकार करने की प्रार्थना की। स्वामी जी ने उसकी श्रद्धा को देखा और उसका भोजन स्वीकार किया। इससे पूर्व कि वह भोजन करते कुछ पण्डित वहां स्वामी जी के लिये भोजन लेकर आ पहुंचे। स्वामी जी द्वारा नाई द्वारा दिया गया भोजन स्वीकार करने पर आपत्ति करते हुए उन्होंने स्वामी जी को भोजन न करने की सलाह दी। स्वामी जी ने कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि यह नाई की रोटी है। नाई की जाति छोटी जाति मानी जाती है। पण्डितों ने स्वामी जी को कहा कि आप विद्वान, ब्राह्मण एवं संन्यासी हैं। आपको इस भोजन को ग्रहण नहीं करना चाहिये। यह सुनकर स्वामी जी ने उस रोटी को सभी ओर से बारीकी से देखा। उन्होंने कहा कि यह रोटी तो गेहूं के आटे की है न की नाई की। तुम्हारी यह बात उचित नहीं है। दूसरी बात नाई की जाति की है, जाति तो सभी मनुष्यों की एक ही होती है। नाई और हम सबकी जाति मनुष्य-जाति है। इसलिये इसमें छोटा व बड़ा का भाव रखना सामाजिक दृष्टि से अनुचित है। स्वामी जी ने उन पण्डितों को कहा कि अन्न व भोजन तब दूषित होता है यदि उसे खिलाने वाले में श्रद्धा न हो। इस नाई के भीतर अपार श्रद्धा दृष्टिगोचर हो रही है। यह नाई परिश्रमी है और इसकी आय का साधन भी निन्दित नहीं अपितु पवित्र  है। तीसरा अन्न दोष तब होता है जब वह उसे बनाने में स्वच्छता के नियमों का पालन न किया जाये। इस नाई की श्रद्धा से यह स्पष्ट है कि इसने अपनी ओर से पूरी स्वच्छता का पालन किया है। अतः यह भोजन दूषित कदापि नहीं अपितु मुझ जैसे संन्यासी के करने के सर्वथा योग्य है। यह कह कर स्वामी दयानन्द ने सबके सामने उन सूखी रोटियों को खाया और उन पण्डितों का स्वादिष्ट भोजन लौटा दिया। पण्डित देर से भोजन लाये थे और नाई पहले ले आया था। अतः नाई का सम्मान करना उनका कर्तव्य था। इस उदाहरण से एक निर्धन नाई के श्रद्धापूर्वक अतिथि सत्कार करने से उसे निर्धन या दरिद्र नहीं कहा जा सकता। उसकी भावनायें व उसका कार्य उसे उच्च भावनाओं से युक्त सिद्ध करते हैं जिससे वह स्वामी जी के सम्मान का पात्र तो बना ही, अपितु ऐसा सभी मनुष्यों को होना चाहिये, यह निष्कर्ष निकलता है। कल्पना कीजिये कि जब कोई धनाड्य व उच्चाधिकारी मनुष्य अज्ञात व निर्जन स्थान पर फंस जाये तब उसे जो भी मनुष्य भोजन कराता है, उसका वह कितना ऋणी होता है। विघ्नों से पीड़ित उस क्षुधातुर व्यक्ति का मन ही उस भोजन के महत्व को जान सकता है। अतः श्रद्धा से विद्वान अतिथियों जो समाज का उपकार करने वाले हों, उनकी भोजन आदि से सेवा करना सबका कर्तव्य है। श्रद्धा से ही मनुष्य की निर्धनता व धनवान होने का पता चलता है। जो मनुष्य विद्वान अतिथि को श्रद्धा से भोजन न कराये वही निर्धन होता है। 

ऋषि दयानन्द के जीवन का एक उदाहरण और प्रस्तुत कर रहे हैं। स्वामी दयानन्द जब मथुरा दण्डी स्वामी गुरु विरजानन्द सरस्वती से अध्ययन करने गये तो स्वामी विरजानन्द जी ने उन्हें शिष्य तो स्वीकार कर लिया परन्तु उन्हें अपने भोजन व निवास की व्यवस्था करने के लिये कहा। स्वामी जी मथुरा में पहली बार आये थे। उन्हें वहां कोई जानता नहीं था। अतः उन्हें भोजन व निवास की व्यवस्था न होने के कारण निराशा हुई। नगर के सम्पन्न व्यक्ति पं. अमरनाथ जोशी जी को स्वामी विरजानन्द जी के शिष्यों से ज्ञात हुआ कि आज मथुरा नगरी में एक प्रतिभाशाली युवक आया था जिसे भोजन व निवास की व्यवस्था करने के लिये कहा गया। यह भी पता चला की उसके पास व्यवस्था न होने के कारण उसे निराशा हुई। जोशी जी ने स्वामी दयानन्द को ढुंढवाया। वह मिल गये और उनको पं. अमरनाथ जोशी के सम्मुख लाया गया। जोशी जी ने स्वामी दयानन्द की आवश्यकतायें पूछी और उन्हें आश्वासन दिया कि वह उनकी आवश्यकतायें पूरी करेंगे। स्वामी दयानन्द ने मथुरा में गुरु विरजानन्द जी से लगभग साढ़े तीन वर्ष अध्ययन किया। इस पूरी अवधि में भोजन आदि की व्यवस्था पं. अमरनाथ जोशी जी ने की। स्वामी दयानन्द के जीवन चरित्र में घटना आती हैं कि जोशी जी अपनी उपस्थिति में स्वामी जी को भोजन कराते थे और उनका पूरा ध्यान रखते थे। यदि कभी उन्हें भोजन के समय कहीं जाना होता था तो वह कोशिश करते थे कि वह दयानन्द जी को भोजन कराकर ही कहीं जायें। इस श्रद्धा व सेवा भाव से देश को विश्व का गुरु ऋषि दयानन्द मिला। इससे सारा देश व विश्व स्वामी विरजानन्द, स्वामी दयानन्द सहित पं. अमरनाथ जोशी जी का सदा सदा के लिये ऋणी हो गया। यदि पं. अमरनाथ जोशी जी में अतिथि सेवा का श्रद्धाभाव न होता तो आज हम ऋषि दयानन्द व उनके वेदज्ञान से वंचित रहते। ईश्वर का कोटिशः धन्यवाद है कि अतिथि सेवा के प्रति श्रद्धा की परम्परा से हमें वेदज्ञ व वेदोद्धारक ऋषि दयानन्द प्राप्त हुए। सही अर्थों में पं. अमरनाथ जोशी निर्धन कहाते यदि वह स्वामी दयानन्द जैसे ईश्वर भक्त व भावी विश्वगुरु के भोजन आदि की व्यवस्था न करते। उन्होंने जो किया उससे उनके जैसा यशस्वी धनवान हमें विश्व में और कोई और नहीं दीखता। 

निर्धनता धन व साधनों के अभाव से अधिक वैचारिक श्रद्धा के अभाव को कहते हैं। जिस मनुष्य के पास ज्ञान है व जो श्रद्धापूर्वक सद्कर्मों को करता है, शास्त्र की मर्यादाओं में रहकर शास्त्रीय उपदेशों का पालन करता है, वस्तुत वह दरिद्र व निर्धन नहीं कहा जा सकता। हमें एक उदाहरण स्मरण आ रहा है। भारत के एक विद्वान अमेरिका गये। उन्हें काषाय वस्त्रों मे देखकर एक विदेशी उन पर हंस दिया। हमारे विद्वान स्वामी जी उस विदेशी का भाव समझ गये कि वह उनके वस्त्रों से उनका मूल्यांकन कर रहा है। इस पर स्वामी जी ने हंसते हुए कहा कि यूरोप में एक दर्जी किसी सभ्य मनुष्य को बनाता है परन्तु भारत में सभ्य मनुष्य श्रेष्ठ चरित्र व मर्यादाओं को धारण करने से बनता है जिनका यूरोप में अभाव देखने को मिलता है। 

पं. विशुद्धानन्द मिश्र जी के श्लोक के दूसरे भाग में कहा गया है पृथिवी पर भाग्यशाली मनुष्य वह होता है जिसके घर में विद्वान अतिथि आते हैं। यह बात भी गम्भीर चिन्तन से युक्त एवं सर्वथा सत्य है। हम भाग्यशाली तभी बनेंगे जब हम विद्वान अतिथि संन्यासियों को अपने निवास पर आमंत्रित कर उनकी रुचि के अनुसार सात्विक भोजन करायेंगे और अपनी सामथ्र्यानुसार उनकी सहायता व सेवा करेंगे। देश में कोविड-19 की महामारी चल रही है। इस रोग ने देश की अर्थ व्यवस्था चैपट कर दी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस चुनौती को स्वीकार कर उसके विरुद्ध रात दिन संघर्ष कर रहे हैं। इसके अच्छे परिणाम भी हमारे सामने आयें हैं। मोदी जी ने देश की विषम परिस्थितियों में देशवासियों से प्रधानमंत्री राहत कोष में धन दान करने की अपनी की। इसका संज्ञान लेकर देश के प्रसिद्ध यशस्वी उद्योगपति रतन टाटा जी ने इस कोष में अपनी ओर से 150 करोड़ की धनराशि दान की है। अन्य देशवासियों ने भी अपनी अपनी ओर से यथाशक्ति सहयोग किया है। ऐसे सभी लोग जिन्होंने सहयोग किया तथा जो इस संकट की घड़ी में देश व प्रधानमंत्री के साथ हैं, भाग्यशाली कहे जायेंगे। ऐसे समय में भी जो कोई सहयोग नहीं कर रहा है तथा अपना स्वार्थ ढूंढ रहा है, वह निन्दनीय है।

वेद ईश्वर का दिया हुआ ज्ञान है। वेदों ने कहा है कि जो मनुष्य अकेला स्वादिष्ट भोजन करता है और भूखे, साधनहीन तथा अभावग्रस्तों की उपेक्षा व अवहेलना करता है, उनके भोजन का प्रबन्ध नहीं करता, वह भोजन नहीं करता अपितु पाप खाता है। वेदों के इन वचनों में सत्यता है। कल्पना करें कि एक पिता की अनेक सन्तानें हैं। कुछ सम्पन्न और कुछ धनहीन हैं। एक अकेला स्वादु भोजन कर रहा है तथा अन्य भूखे हैं। ऐसी स्थिति में पिता अपने धनवान पुत्र को धिक्कारेगा और जो सन्तान अपना भोजन अपने भूखे भाईयों को करायेगा वह अपने पिता का सबसे योग्यतम पुत्र का स्थान प्राप्त करेगा। इसी स्थिति को ध्यान में रखकर वेद ने अकेले भोजन करने वालों को पाप खाने जैसी कठोर बात कही है। हमें वेद और शास्त्रों के वचनों का आदर करना चाहिये। इसी में हमारा कल्याण है। ओ३म् शम्।   

-मनमोहन कुमार आर्य

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