ज्ञानमयी अमृतवाणी 

    ज्ञानमयी अमृतवाणी 

    ज्ञानमयी अमृतवाणी 

    ज्ञानमयी अमृतवाणी 
             

 हमारी भलाई चाहने वाला पराया भी हो, तो भी अपना हो जाता है जबकि हानि करने वाला अपना भी अपना नही होता बल्कि शत्रु होता है । देखिए न ! रोग और विकार आखिर तो अपने शरीर में ही पैदा होते है , इसी में रहते और पनपते है फिर भी शरीर  को कष्ट देते है और नष्ट करते है जबकि दूर जंगल में पैदा हुई जड़ी-बूटी शरीर के कष्ट मिटाती  है और प्राण- रक्षा करती हैं ।

    कामवासना जैसी कोई व्याधि नही, क्रोध जैसी कोई अग्नि नही, लोभ जैसा कोई जाल नही, अज्ञान से बढ़कर कोई अन्धकार नही, मुर्खता से बढ़ कर कोई निर्बलता नही, तृष्णा से बढ़कर कोई दरिद्रता नही, सन्तोष से बढकर कोई सुख नही, विद्या से बढ़कर कोई धन नही, मोह से बढ़कर कोई सम्बन्ध नही और ईश्वर से बड़ा कोई भी नही। 

     कोई कितना ही ज्ञानी और विधावान हो, यदि वह अपने आचरण में विद्या और ज्ञान का उपयोग नही करता तो वह मुर्ख ही नही महमुर्ख है। वह उस जानवर की तरह है जिस पर बहुत सी किताबें लदी होती है पर वह उन पुस्तकों के ज्ञान से लाभ नही उठा पाता , जैसे तपेली और कलछी को स्वादिष्ट व्यंजन के स्वाद का आन्नद नही मिलता।

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