‘आर्य-द्रविड़ विवाद’ के जन्मदाता कौन
‘आर्य-द्रविड़ विवाद’ के जन्मदाता कौन

‘आर्य-द्रविड़ विवाद’ के जन्मदाता कौन ?◼️
लेखक - स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती
प्रस्तुति - ‘अवत्सार’
भारत में फूट के लिए सबसे अधिक उत्तरदाता विदेशी शासन था, यद्यपि यह भी एक गोरखधन्धा है कि एकता के लिए भी सबसे अधिक उत्तरदाता विदेशी शासन था।
हमारी फूट के कारण विदेशी शासन हम पर आ धमका। देश के जागरूक नेताओं की बुद्धिमत्ता से एकता की आग प्रज्ज्वलित हुई। विदेशी शासक आग में ईधन, विदेशी अत्याचार घी का काम देते रहे। अन्त में विदेशी शासकों को भस्म होने से पूर्व ही भागना पड़ा। परन्तु अब विदेशी फूट डालने वालों का स्थान स्वदेशी स्वार्थियों ने ले लिया।
हिन्दी के परम समर्थक तथा कम्युनिस्टों के परम शत्रु राज गोपालाचारी, अंग्रेजी के गिरते हुए दासतामय भवन के सबसे बड़े स्तम्भ बन गये।
जो प्रोफेसर अंग्रेजी इतिहासकारों के आसनों पर आसीन हुये वही ‘आर्य' तथा 'द्रविड़' शब्दों के अनर्गल अर्थों के प्रयोग को भारत की छोटी से छोटी पाठशाला तक पहुंचाने में सबसे बड़े सहायक बन गये।
मैं दोनों भुजा उठाकर इस अनर्थ के विरुद्ध शंखनाद करना चाहता हूँ। मेरा कहना है कि सारे संस्कृत साहित्य में एक पंक्ति भी ऐसी नहीं जिससे आर्य नाम की नस्ल (Race) का अर्थ निकलता हों। इस शब्द का सम्बन्ध ▪️(१) या तो चरित्र से है ▪️(२) या भाषा से ▪️(३) या उस भाषा को बोलने वाले लोगों से ▪️(४) या उस देश से जहाँ इस प्रकार के चरित्र और भाषा वाले मनुष्य बसते हैं इसलिए किसी गोरे रंग वाली अथवा लम्बी नाक वाली जाति से इस शब्द का कोई दूर का भी सम्बन्ध नहीं है इसी प्रकार द्रविड़ शब्द ब्राह्मणों के दश कुलों में से पांच कुलों में होता है जिनमें शंकराचार्य जैसे ब्राह्मण पैदा हुए।
अथवा मनुस्मृति के उपलभ्यमान संस्करण के अनुसार द्रविड उन क्षत्रिय जातियों में से एक है जो आचारस्य वर्जनात् अथवा ब्राह्मणनामदर्शनात् वृषलत्स्वम् गताः।' क्षत्रियोचित आचार छोड़ देने तथा ब्राह्मणों के साथ सम्पर्क नष्ट हो जाने के कारण शूद्र कहलाये। किन्तु काले रंग तथा चिपटी नाक का द्रविड़ शब्द से कोई दूर का भी सम्बन्ध नहीं ।
आर्य और द्रविड़ शब्द पश्चिम की दृष्टि में -
मैकडानल की वैदिक रीडर में जो कि आज भारत के सभी विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों में पढ़ाई जाती है लिखा है :-
"The historical data of the hymuns show that the Indo-Aryans were still engaged in war with the aborigines, many victories over these forces being mentioned. that they were still moving forward as conquerors is indicated by references to reverse as obstacles to advances to."
"They were conscious of religious and racial unity, contrasting the aborigines with themselves by calling them non-sacrificers, and unbelievers as well as black skin's and the Das's colour' as opposed to the Aryan colours.
‘ऋग्वेद की ऋचाओं से प्राप्त ऐतिहासिक सामग्री यह दिखाती है कि इण्डो-आर्यन् लोग सिन्धु पार करके फिर भी भारत के आदिवासियों के साथ युद्ध में लगे हुये थे इन शत्रुओं पर उनकी कई विजयों का ऋग्वेद में वर्णन है अभी भी विजेता के दल आगे बढ़ रहे थे। यह इस बात से सूचित होता है कि वे कई स्थानों पर नदियों का अपने अभि प्रयाण के मार्ग में बाधा के रूप में वर्णन करते हैं।’
“उन्हें यह अनुभव था कि उनमें जातिगत तथा धार्मिक एकता है। वे आदिवासियों को अपनी तुलना में यज्ञ हीन, विश्वास हीन, काली चमड़ी वाले, दास रंग वाले तथा अपने आपको आर्य रंग वाले कहते है”
यह सारा का सारा ही आद्योपान्त अनर्गल प्रलाप है। सारे ऋग्वेद में कोई मनुष्य एक शब्द भी ऐसा दिखा सकता है क्या जिससे यह सिद्ध होता है कि काली चमड़ी वाले आदिवासी थे और आर्य रङ्ग वाले किसी और देश के निवासी थे।
प्रथम तो वेद में काली चमड़ी वाले (कृष्णत्वचः) यह शब्द ही कहीं उपलब्ध नहीं और ना ही कहीं गौरवचः ऐसा शब्द है।
हाँ, ‘दास वर्णम्' ‘आर्य वर्णम्' यह दो शब्द हैं जिनकी दुगति करके काले-गोरे दो दल कल्पना किये गए है। हलाँकि चारों वेदों में विशेष कर ऋग्वेद में कोई एक पंक्ति भी ऐसी नहीं है जिससे यह सिद्ध होता हो कि ‘आर्य वर्णम्' इस देश में बाहर से आए, और ‘दास वर्णम्' यहां के मूल निवासी (Aborigines) थे।
यदि इनके युद्ध का वर्णन है, तो वह युद्ध क्या एक ही देश के रहने वाले दो दलों में नहीं हो सकता, इन दोनों में से एक दल बाहर से आया था और दूसरा आदिवासी दल था इस कल्पना का एक ही और केवल मात्र एक उद्देश्य था, भारत में पग-पग पर फूट फैलाने वाले तथा भारत के एकता के परम शत्रु अंग्रेजी शासकों की तथा वैदिक धर्म द्रोही पादरियों की दुष्टता है।
अब अंग्रेज चले गए। क्या अब भी हमारे देशवासियों की आंखें खुलेंगी।
◼️आर्य और द्रविड़ का असली अर्थ -
अब जरा आर्यवर्ण तथा दासवर्ण इन शब्दों की परीक्षा करलें।
वर्ण शब्द का अर्थ इस प्रसंग में है ही नहीं। धातु-पाठ में रंग-वांची वर्ण वाची शब्द के लिए वर्ण धातु पृथक ही दी गई है परन्तु निरुक्तकार ने इस वर्ण शब्द की व्यत्युत्ति वृ धातु से बताई है। वर्णो वृणोतेः (निरुक्त)।
ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य यह तीन आर्य वर्ण हैं, क्योंकि सत्यद्वारा असत्य नाश, बल द्वारा अन्याय का नाश धन द्वारा दारिद्रय का नाश यह तीन व्रत हैं।
इनमें से जो एक व्रत का वरण अर्थात् चुनाव कर लेता है उसके ‘वर्णिक' को जीवन अपने वर्ण की मर्यादानुसार अत्यन्त कठोर नाप तोल में बंध जाता है इसलिये वह व्रत आर्य वर्ण कहलाता है।
जो अपने आप को सब प्रकार की शक्तियों से क्षीण पाता है। परन्तु स्वेच्छा पूर्वक ईर्षा-रहित होकर लोक कल्याणार्थ किसी व्रत वाले की सेवा का व्रत ले लेता है वह दास वर्ण का कहलाता है इसलिये शूद्रों के दासन्त नाम कहे हैं। जो व्रतहीन हैं वह दास नहीं, दस्यु हैं।
उन्हें अव्रताः कहकर व्रत वाले उनसे युद्ध करें यह बिलकुल उचित ही है। यह व्रतधारियों का व्रतहीनों से, हराम खोरों का श्रम शीलों से संग्राम सदा से चला आया है और सदा रहेगा। यह दोनों ही सदा से धरती पर रहे हैं इसलिए दोनों ही धरती के आदिवासी, मध्यवासी, तथा अन्तवासी हैं।
अस्तु Aborigines की यह कल्पना बिलकुल निराधार है। इसका वैदिक वाङ्मय तो क्या सारे संस्कृत साहित्य में वर्णन नहीं ।
◼️आर्य शब्द कैसे बना -
अब देखना है कि आर्य शब्द यदि जाति विशेष का वाचक नहीं तो यह किसका वाचक है।
इसके लिये इसकी व्युत्पत्ति को देखना चाहिए।
यह शब्द ‘ऋ गतौ' (Ri to move) इस धातु से बना है, परन्तु ऋ धातु का अर्थ गति है इतना तो व्याकरण से ज्ञात हो गया अब निरुक्त प्रक्रिया से देखना चाहिये कि ऋ धातु का अर्थ किस प्रकार की गति है। इसके लिए दो शब्दों को ले लीजिए। एक ऋतु, दूसरा अनऋतु। ऋतु का अर्थ है नपा हुआ समय। ग्रीष्म ऋतु= गरमी के लिये नियत, नपा हुआ समय, वर्षा ऋतु = जिसमें वर्षा होती है वह नपा हुआ समय, शरद ऋतु=जिसमें सरदी पड़े वह नपा हुआ समय, बसन्त ऋतु=जिसमें सरदी से धुन्ध कोहरा आदि आकाश के आच्छादक वृत्तोका अन्त हो और समशीतोष्ण अवस्था हो वह नपा हुआ समय, इस प्रकार ‘ऋगतौ’ का अर्थ हुआ ऋ= मितगतौ अर्थात् न प के साथ चलना।
इसीलिये जो पदार्थ जैसा है उसके सम्बन्ध में अन्यूना= नातिरिक्त, ठीक नपा तुला ज्ञान कहलाता है= ऋतु इसके विपरीत अन+ ऋतु। इसका बिलकुल संदेह नाशक प्रमाण कीजिये -