कामरूपी शत्रु पर विजय
कामरूपी शत्रु पर विजय
कामरूपी शत्रु पर विजय
लेखक - महामहोपाध्याय पण्डित आर्यमुनि जी
सम्पादन एवं प्रस्तुति - अवत्सार’
अर्जुन उवाच -
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥गीता ३.३६॥
पदार्थ- (अर्थ) इतिप्रश्ने (वार्ष्णेय) हे वृष्णिकुलोत्पन्न कृष्ण! (अयं पुरुषः) यह पुरुष (अनिच्छन्, अपि) इच्छा न करता हुआ भी (बलात्, नियोजितः, इव) बल से धकेले हुए के समान (केन, प्रयुक्तः) किसकी प्रेरणा से (पापं, चरति) पाप करता है।
श्रीभगवानुवाच -
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्॥गीता ३.३७॥
पदार्थ- (कामः, एषः) यह जो काम है (क्रोधः, एषः) क्रोध भी यही है (रजोगुणसमुद्भव:) रजोगुण से समुद्भव=उत्पत्ति है जिसकी, फिर यह कैसा है (महाशन:) बहुत खाने वाला है अर्थात् इसकी भूख कभी मरती ही नहीं, और (महापाप्मा) बड़ा पापी है (विद्धि, एनम्, इह, वैरिणम्) इसको वैरी समझो, इसी की प्रेरणा से मनुष्य पाप करता है।
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्वेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्॥गीता ३.३८॥
पदार्थ- (धूमेन, आवियते, वह्निः) जिस प्रकार धूम से अग्नि ढक जाती (यथा, आदर्शः, मलेन) जिस प्रकार दर्पण छाई से ढक जाता (च) और (यथा) जिस प्रकार (उल्वेन) जेर से गर्भ ढका रहता है (तथा) इसी प्रकार (तेन, इदम, आवृतम) उस काम से मनुष्य का ज्ञान ढका रहता है।
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च॥गीता ३.३९॥
पदार्थ- हे कौन्तेय! (ज्ञानिनः, नित्यवैरिणा) ज्ञानियों का जो यह नित्य वैरी है (एतेन, कामरूपेण) इस काम से (ज्ञानम्, आवृतम्) ज्ञान ढका हुआ है, फिर यह कैसा है (दुष्पूरेणअनलेन, च) दुःख से पूर्ण होने वाली आग है अर्थात् जैसे अग्नि लकड़ियों से तृप्त नहीं होती इसी प्रकार यह कामरूपी अग्नि कामनाओं से तृप्त नहीं होती।
सं०- जिस प्रकार अधिष्ठान के जाने विना शत्रु नहीं जीता जा सकता इसी प्रकार इस काम के अधिष्ठान=स्थान जाने विना इसका जीतना असम्भव है, इस अभिप्राय से इसका अधिष्ठान कथन करते -
इन्द्रियाणि मनोबुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥गीता ३.४०॥
पदार्थ- (इन्द्रियाणि) इन्द्रियाँ (मनः) मन (बुद्धिः) बुद्धि (अस्य) इस काम का (अधिष्ठानम्, उच्यते) अधिष्ठान[स्थान] कथन किया गया है अर्थात् इन्द्रिय, मन और बुद्धिरूपी घर में काम रहता है (एतैः) इन तीनों से (ज्ञानम्, आवृत्य) ज्ञान को ढककर (एषः) यह (देहिनम्) जीवात्मा को (विमोहयति) मोह लेता है।
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥गीता ३.४१॥
पदार्थ- (भरतर्षभ) हे भरतकुल में श्रेष्ठ अर्जुन! (तस्मात्) इसलिये (त्वम्) तू (आदौ, इन्द्रियाणि, नियम्य) प्रथम इन्द्रियों को अपने वश में करके (हि) निश्चयपूर्वक (ज्ञानविज्ञाननाशनम्) ज्ञान=बाह्य पदार्थों का ज्ञान और विज्ञान=आत्मज्ञान का जो नाश करने वाला यह (पाप्मानम्) पापी काम है इसको (प्रजहि) नाश कर।
सं०- अब इस कामरूपी शत्रु के जीतने का प्रकार कथन करते है-
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥गीता ३.४२॥
पदार्थ- (इन्द्रियाणि, पराणि, आहुः) स्थूल शरीर की अपेक्षा इन्द्रिय परे (इन्द्रियेभ्यः , परं, मन:) इन्द्रियों से मन परे (मनसः, तु, परा, बुद्धिः) मन से परे बुद्धि और (यः, बुद्धेः, परत:) जो बुद्धि से परे है (सः) वह आत्मा और परमात्मा है।
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥गीता ३.४३॥
पदार्थ- (महाबाहो) हे बड़े बल वाले! (एवम्) इस प्रकार (बुद्धेः, परं, बुद्ध्वा) बुद्धि से परे जो आत्मा और परमात्मा है उसको जानकर (आत्मना) स्वयम् अपने संस्कृत मन से (आत्मानं, संस्तभ्य) अपने आत्मा को परमात्मा में ठहराकर अर्थात् आत्मिक बल बढ़ाकर (काम रूपं, शत्रु, जहि) इस कामरूप शत्रु को जीत, यह कैसा शत्रु है जो (दुरासदम्) दुःख से मारा जा सकता है अर्थात् इसके मारने के लिये बड़ा प्रयत्न चाहिये।
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