"याज्ञवल्क्य तथा जनक की वार्त्ता
याज्ञवल्क्य तथा जनक की वार्त्ता

ओ३म्
"याज्ञवल्क्य तथा जनक की वार्त्ता आत्म दर्शन के सम्बन्ध में चल रही थी , तब जनक ने प्रश्न किया -
"कतम आत्मा इति ?"
अर्थात् वह आत्मा इस देह में कौन-सी है ?
इस प्रश्न के समाधान में याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि-
"यो$यं विज्ञानमयः प्राणेषु
हृद्यन्तर्ज्ज्योतिः पुरूषः।"बृ॰४/३/७!
अर्थात् यह जो विज्ञान-स्वरूप इन्द्रियों से घिरा हुआ , हृदय के अन्दर ज्योति पुरूष है । "जैसे नमक का एक ढेला हो , न उसके कुछ अन्दर है न बाहर ; किन्तु सारे-का-सारा वह एक रस का ढेला है ।
इसी प्रकार यह जो आत्मा है न, इस के न कुछ अन्दर है, न बाहर है ; किन्तु सारे-का-सारा एक चेतनता का ही पुञ्ज है । जो इन भूतों (प्राणधारियों) से प्रकट होकर इन्हीं में गुम हो जाता है ।"
अपि च,
"जैसे नाटक में पर्दे के पीछे से नट(एक्टर) आकर और अपना खेल दिखाकर फिर पर्दे के पीछे चला जाता है । इसी प्रकार आत्मा फिर पर्दे की ओट में हो जाती है ।
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