◆ आर्य युवको! नेता नहीं, सेवक बनो...
◆ आर्य युवको! नेता नहीं, सेवक बनो...
◆ आर्य युवको! नेता नहीं, सेवक बनो...
"मैं उपदेश नहीं देता, क्योंकि मैं उपदेश देने के योग्य नहीं हूँ... मत देखो कि मुंशीराम या तुलसीराम क्या करता है। सेवक बनने का यत्न करो, क्योंकि लीडरों की अपेक्षा आर्य जाति को सेवकों की बहुत अधिक आवश्यकता है। जब कभी आपका पैर डगमगाने लगे तो राम के सेवक हनुमान का स्मरण कर लिया करो। लंका विजय करके महाराजा रामचन्द्र अयोध्या लौटे। राजगद्दी के मिलने के पीछे विभीषण, अंगद आदि सभी विदा होने लगे। उस समय माता सीता ने सभी को कुछ पुरस्कार दिया। सीता का हनुमान के साथ सबसे अधिक प्रेम था। माता ने अपने मोतियों का बहुमूल्य हार हनुमान को दिया। हनुमान ने हार लेकर एक एक मोती को तोड़ना आरम्भ किया। सीता के पूछने पर हनुमान ने कहा, 'माता, मैं देखना चाहता था कि इन मोतियों के अंदर राम का भी नाम है या नहीं? राम के नाम के बिना मैं इन मोतियों का क्या करूँ?' नवयुवकों, मैं पूछता हूँ, क्या तुममें से कोई भी दयानन्द रूपी राम का पायक [सैनिक] हनुमान बनने का यत्न न करेगा? महावीर के बिना दयानन्द का काम अधूरा पड़ा है। मुझे पूरी आशा है कि दयानन्द के काम को पूरा करने के लिए, पाप की लंका का विध्वंस करने के लिए तुम्हीं में से महावीर निकलेंगे।"
- स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज
[७ अक्टूबर १९१३ को दिल्ली में 'अखिल भारतीय आर्यकुमार सम्मेलन' के चौथे अधिवेशन के अध्यक्ष के रूप में आर्य युवकों के समक्ष स्वामी श्रद्धानन्द जी द्वारा दिए गए व्याख्यान का एक अंश। ये उदगार आज भी उतने ही उद्बोधक एवम प्रेरक है जितने उस समय थे।]
* प्रस्तुति: राजेश आर्य
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