रामायणकालीन वैदिक संस्कृति
रामायणकालीन वैदिक संस्कृति
रामायणकालीन वैदिक संस्कृति
(१) सन्ध्या और अग्निहोत्र:
वाल्मीकि रामायण से विदित होता है कि उस काल में आर्यों की उपासना सन्ध्या के रुप में होती थी। जप, प्राणायाम तथा, अग्निहोत्र के भी विपुल उल्लेख मिलते हैं। पौराणिक मूर्तिपूजा, व्रत, तीर्थ, नामस्मरण या कीर्तन रुप में धार्मिक कृत्य का वर्णन मूलतः नहीं है। क्षणिक उल्लेख जो इस सम्बन्ध में मिलते भी हैं वे अप्रासङ्गिक प्रक्षेप या मूलकथा से असम्बद्ध हैं।
ईशस्तुति, सन्ध्या, गायत्री जप, अग्निहोत्र और प्राणायाम के कुछ प्रसंग द्रष्टव्य हैं―
कौशल्या-सुप्रजा-राम पूर्वा सन्ध्या प्रवर्तते ।
उत्तिष्ठ नरशार्दूल ! कर्तव्यं दैवमाह्रिकम् ।।―(बालकाण्ड ३३/२)
भावार्थ―महर्षि विश्वामित्र ने कहा―हे कौशल्या नन्दन राम ! प्रातः कालीन सन्ध्या का समय हो रहा है। हे नरशार्दूल ! उठो और नैत्यिक कर्तव्य-सन्ध्या और देवयज्ञ करो।
तस्यर्षेः परमोदारं वचः श्रुत्वा नरोत्तमौ ।
स्नात्वा कृतोदकौ वीरौ जेपतुः परमं जपम् ।।―(बाल०का० २३/३)
भावार्थ―ऋषि विश्वामित्र के इस उदार वचनों को सुनकर दोनों भाई (राम और लक्ष्मण) उठे, स्नान आदि से निवृत्त होकर परम जप (गायत्री का जाप) किया।
कुमारावपि तां रात्रिमुषित्वा सुसमाहितौ ।
प्रभातकाले चोत्थाय पूर्वां सन्ध्यामुपास्य च ।। ३१ ।।
प्रशुची परमं जाप्यं समाप्य नियमेन च ।
हुताग्निहोत्रमासीनं विश्वामित्रमवन्दताम् ।। ३१ ।।―(बाल० का० २९वां सर्ग)
भावार्थ―राम,लक्ष्मण दोनों राजकुमार सावधानी के साथ रात्रि व्यतीत करके प्रातःकाल उठे और सन्ध्योपासना की। अत्यन्त पवित्र होकर परम जप गायत्री का नियमपूर्वक उन्होंने जप किया और उसके बाद अग्निहोत्र करके बैठे हुए गुरु विश्वामित्र को अभिवादन किया।
आश्वासितो लक्ष्मणेन रामः सन्ध्यामुपासत ।―(युद्धकाण्ड ५/२३)
भावार्थ―सीता के शोक से दुःखी राम ने लक्ष्मण द्वारा धैर्य बंधाने पर (आश्वासित) सन्ध्योपासना की।
सीता को खोजते हुए हनुमान् अशोकवाटिका में एक पवित्र सुन्दर नदी को देखकर सोचते हैं―
सन्ध्याकालमनाः श्यामा ध्रुवमेष्यति जानकी।
नदीं चेमां शुभजलां सन्ध्यार्थे वरवर्णिनी ।।―(सुन्दरकाण्ड १४/४९)
भावार्थ―यदि सीता जीवित होंगी तो प्रातःकालीन सन्ध्या के लिए इस सुन्दर जलवाली नदी के तट पर, सन्ध्या के योग्य इस स्थल पर अवश्य आयेंगी।
तस्मिन् कालेपि कौशल्या तस्थावामीलितेक्षणा ।
प्राणायामेन पुरुषं ध्यायमाना जनार्दनम् ।।―(अयो० ४/३२-३३)
भावार्थ―श्रीराम जब कौशल्या जी के भवन में गये उस समय कौशल्या नेत्र बन्द किये ध्यान लगाए बैठी थीं और प्राणायाम के द्वारा परमपुरुष परमात्मा का ध्यान कर रही थीं।
सा क्षौमवसना ह्रष्टा नित्यं व्रतपरायणा ।
अग्निं जुहोति स्म तदा मन्त्रवत्कृतमङ्गला ।।―(अयो० २०/१५)
भावार्थ―रेशमी वस्त्र पहनकर राममाता कौशल्या प्रसन्नता के साथ निरन्तर व्रतपरायण होकर मङ्गल कृत्य पूर्ण करने के पश्चात् मन्त्रोचारणपूर्वक उस समय अग्नि में आहुति दे रही थीं।
गते पुरोहिते रामः स्नातो नियतमानसः ।
सह पत्न्या विशालाक्ष्या नारायणमुपागतम् ।।―(अयो० ६/१)
भावार्थ―पुरोहित के चले जाने पर श्रीराम ने स्नान करके नियत मन से विशाललोचना पत्नि सीता सहित परमात्मा की उपासना की।
(२) वेद वेदाङ्ग का अध्ययन:
रक्षिता स्वस्य धर्मस्य स्वजनस्य च रक्षिता।
वेदवेदाङ्गत्तत्त्वज्ञो धनुर्वेदे च निष्ठितः।।―(बाल० १/१४)
भावार्थ―राम स्वधर्म और स्वजनों के पालक वेद-वेदाङ्गों के तत्त्ववेत्ता तथा धनुर्वेद में प्रवीण थे।
सर्वविद्याव्रतस्नातो यथावत् साङ्गवेदवित् ।।―(अयो० १/२०)
भावार्थ―श्रीराम सर्वविद्याव्रतस्नातक तथा छहों अङ्गों सहित सम्पूर्ण वेदों के यथार्थ ज्ञाता थे।
अस्मिन् च चलते धर्मो यो धर्म नातिवर्तते।
यो ब्राह्ममस्रं वेदांश्च वेदविदां वरः।।―(युद्धकाण्ड २८/१९)
भावार्थ―धर्म श्रीराम से कभी अलग नहीं होता। श्रीराम धर्म का कभी उल्लंघन नहीं करते। वे ब्रह्मास्र और वेद दोनों के ज्ञाता थे तथा वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ थे।
(३) रावण भी वेदविद्याव्रत स्नातक था:
वेदविद्यावर्तस्नातः स्वकर्मनिरतस्तथा।
स्रियः कस्माद् वधं वीर ! मन्यसे राक्षसेश्वर।।―(युद्धकाण्ड ९२/६४)
भावार्थ―सुपार्श्व नामक बुद्धिमान् रावण के मन्त्री ने रावण से कहा―हे रावण ! तू वेदविद्याव्रतस्नातक तथा स्वकर्मपरायण होकर स्रीवध (सीता का वध) क्यों करना चाहता है?
इस प्रकार रावण वेदविद्यावित् होने पर भी पापी क्यों माना जाता है? इसका उत्तर हनुमान् के निम्न कथन से मिलता है―
अह रुपमहो धैर्यमहो सत्त्वमहो द्युतिः।
अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता।। १७ ।।
यद्यधर्मो न बलवान् स्यादयं राक्षसेश्वरः।
स्यादयं सुरलोकस्य सशक्रस्यापि रक्षिता।। १८ ।।―(सुन्दर०का० ४९वां सर्ग)
भावार्थ―रावण को देखकर हनुमान् मुग्ध हो जाते हैं। वे कहते हैं―अहो रावण का रुप सौन्दर्य ! अहो धैर्य ! कैसी अनुपम शक्ति ! और कैसा आश्चर्यजनक तेज ! राक्षसराज रावण का राजोचित सर्वलक्षणों से सम्पन्न होना कितने आश्चर्य की बात है । यदि इसमें अधर्म प्रबल न होता तो यह इन्द्रसहित देवलोक का भी स्वामी बन सकता था।
अतः वेदवेत्ता होने पर भी अपनी आचारहीनता से रावण अधर्मी और पापी माना गया।
कहा भी गया है―
आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः ।―(मनुस्मृति ६/३)
आचार से हीन दुराचारी व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते।
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