नवधा भक्ति का रूप है संध्या

नवधा भक्ति का रूप है संध्या

नवधा भक्ति का रूप है संध्या

नवधा भक्ति का रूप है संध्या      
    ३.       प्रभु हम पवित्र हों 
                             
        अगला मन्त्र शारीरिक शुद्धि के लिए है | इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए हम अपने शरीर के विभिन्न अंगों पर जल से छींटे देते हैं | हाँ ! शरीर में यदि आलस्य की स्थिति न हो अथवा प्रर्याप्त जल उपलब्ध न हो तो इस क्रिया को छोड़ा जा सकता है अथवा बिना जल के ही इस क्रिया को किया जा सकता है | मन्त्र इस प्रकार है :
               ओउम्  भु: पुनातु  शिरसि    | ओउम् भुव: पुनातु नेत्रयो: |       
               ओउम्  स्व: पुनातु  कण्ठे    | ओउम् मह: पुनातु हृदये   |
         ओउम् जन: पुनातु नाभ्याम्   | ओउम् तप:  पुनातु पादयो: |
         ओउम् सत्यं पुनातु पुनश्शिरसि | ओउम् खं ब्रह्म पुनातु सर्वत्र ||
                              शब्दार्थ 
      ( भु:) हे सत्यस्वरूप , हे प्राणस्वरूप प्रभो ( शिरसि ) हमारे मस्तिष्क को पवित्र करें |
( भुव:) हे ज्ञानस्वरूप प्रभो (नेत्रयो:) हमारे नेत्र अर्थात् हमारी ज्ञानेन्द्रियों को ( पुनातु ) पवित्र करो ( स्व: )हे सुखों के दाता प्रभु ( कण्ठे ) हमारे कंठ को ( पुनातु ) पवित्र करें ( मह:) हे महान् प्रभु ( हृदये ) हमारे ह्रदय को ( पुनातु ) पवित्र करो ( जन: ) हे सब को पैदा करने वाले पिता ( नाभ्यां ) हमारी नाभि , जिसे जन - शक्ति भी कहते हैं , के केंद्र ( पुनातु ) में पवित्रता भर दो ( तप: ) हे दुष्टों को कष्ट देने वाले परमपिता ( पादयो: ) हमारे पैरों को (पुनातु ) पवित्र कर दो ( सत्यं ) हे सत्य स्वरूप परमेश्वर ( पुन: ) एक बार फिर से ( शिरसि ) हमारे सिर में (पुनातु ) पवित्रता ला दो ( खं ) हे आकाश की भाँति व्यापक प्रभु ( ब्रह्म ) हे महान् पिता ( सर्वत्र ) हमारे सब अंगों में ( पुनातु ) पवित्रता भरा दो |
     इस मन्त्र के माध्यम से हमने परमपिता परमात्मा से एक साथ अपने शरीर के विभिन्न अंगों सम्बन्धी बहुत कुछ मांग लिया है | हमने मन्त्र का उच्चारण करते हुए अपने शरीर के विभिन्न अंगों पर जल के छींटे देते हुए जहाँ इन विशेष अंगों के लिए पवित्रता मांगी है , वहां यह भी मांग की है कि हे प्रभु ! हमारे शरीर के सब अंग पवित्र हों , शुद्ध हों, सदा गतिशील हों  | मन्त्र की विस्तृत व्याख्या अवलोकनीय है :                           
 शुशोभित और सुवासित हों 
      मन्त्र में प्रार्थना करते हए परमपिता परमात्मा को हम बार - बार सम्बोधन करते हैं | हम कहते हैं कि हे प्रभो ! आप हमारे आराध्यदेव हैं | आप हमारे मन रूपि मंदिर को प्रकाशित करने वाले हैं | इसलिए हे सर्वप्रकाशक प्रभु ! हम आप के आने की तैयारी के लिए अपने मन रूपि मंदिर को झाड – पोंछ कर साफ़ कर रहे हैं | आप आकर हमें अनुगृहित करोगे , इस आशा के साथ , हमारे अंग - अंग प्रफुल्लित हो रहे हैं | हम आज अपने अन्दर के मंदिर को इस प्रकार साफ करने में लगे हैं , जिससे कि हमारा एक - एक अंग चमकने लगे | प्रत्येक अंग ( वस्तु ) को हम इस स्थान पर सजा रहे हैं | धुप , दीप और फूलों से में इसे शुशोभित और सुवासित करने में लगा हूँ |
उज्जवल मस्तिष्क
       हे प्राणों के प्राण सत्य - स्वरूप प्रभो ! हमारे शरीर रूपि मंदिर में सर्वोच्च स्थान सिर का ही होता है | सर्वोच्च होने के कारण इस की शुद्धि पर ही शरीर के अन्य अंगों की शुद्धि निर्भर करती है | इसलिए हे प्रभो ! हमारी आप से प्रथम प्रार्थना यह है कि हमारे सिर को सशक्त करते हुए इसमें एक एसी पवित्र सरिता को प्रवाहित करो, जो इसमें उत्तम तथा शिव संकल्प के विचारों का एक न समाप्त होने वाला बहाव बनाए रखे | हमारे विचार उत्तम , पवित्र, स्वस्थ तथा प्राणों से युक्त हों , इन में आशा और विश्वास का एसा प्रवाह हो कि इस से यह सबल बनें | हम दीनता और दुर्बलता के विचारों से ऊपर उठें, कभी यह न कहें कि हम से कुछ नहीं हो सकता | इसलिए हे प्रभो ! हमारे मस्तिष्क एसा तेजस्वी बनाओ कि हम आप की इच्छा को पूर्ण करने के लिए धर्म का साम्राज्य स्थापित कर इस सृष्टि को स्वर्गिक आनंद देने वाले और उदात्त विचारों वाले हो सकें |
ज्ञान की धाराओं को भरो
        हे न्यायकारी सच्चिदान्नद प्रभो ! हमारे शरीर में नाक , कान , आँख आदि , जितनी भी ज्ञानेन्द्रियाँ हैं , यह सब सदैव ज्ञान की कथाओं की चर्चा में लगी रहें | इसके साथ ही साथ यह ज्ञानेन्द्रियाँ निरंतर ज्ञान का संग्रह करने में लगी रहें | निरंतर संकलित की गई इन ज्ञान की धाराओं को हमारे मस्तिष्क में भर कर इसे सशक्त बनाती रहें | इस प्रकार इन ज्ञानेन्द्रियों को इस प्रकार व्यस्त रखें कि इन्हें कुमार्ग पर जाने और अपवित्र होने का अवसर ही न मिले | 
कल्याण को बढाने वाली वाणी 
       हे सदा आनंद और शुभ मंगल बरसाने वाले प्रभु ! हमारी वाणी से सदा इस प्रकार की मधुरता निकले, जिस प्रकार मधु से मधुरता टपकती है | यह वाणी सब और सदा सुख देने वाली हो | सब और सदा ज्ञान का प्रकाश करते हुए सब दिशाओं में कल्याण को बढाने वाली हो |    
हृदय महान् और विशाल हो 
       हे पिता ! हृदय वही उत्तम होता है , जिस में महानता और विशालता का निवास हो | इसलिए प्रभो ! हमारे हृदय को भी महानता और विशालता का निवास स्थान बना दो | हमारे अन्दर अपना ही सुख देखने वाली अनेक प्रकार के स्वार्थ की वृत्तियाँ आती रहती हैं, इन सब दुष्ट वृत्तियों को हमारे से सदा दूर रखें | हमारे अन्दर के राग और द्वेष अपने और पराये के बंधन में बंधे रहते हैं , इन्हें समाप्त कर दो | हमारे अन्दर सब के लिए आत्मीयता की उदार भावनाएं बढ़ें | इसके साथ ही हम प्राणी मात्र को अपना परिवार मानते हुए सब के प्रति उत्तम करते हुए हमारे हृदय को महान् बनाते हुए इसे सदा शुद्ध रखें |
अथक तप का परिणाम है सृष्टि 
     हे प्रभो ! आप ही द्युलोक और आप ही पृथ्वी लोक के रचियता हो | आप ही हम में वीर संतानों को पैदा करने की शक्ति देते हो | इसलिए जो वीर्य इस शक्ति का स्रोत है , उस वीर्य का संरक्षण करते हुए हमारे अन्दर उत्पादन शक्ति सदा सशक्त और पवित्र बनी रहे | मानसिक अनियन्त्रता अथवा भोग - विलास अनेक रोगों को पैदा करते हुए ग्लानि का कारण होता है जब कि ब्रह्मचर्य के साथ विचरण चित्त की प्रसन्नता , मस्ती और ह्रदय के विस्तार का कारण होने से मौलिक विचार और मिठास से भरपूर कल्पनाएँ देने वाला होता है |
आचरण पवित्र हो
     हे पिता ! यह सृष्टि - रूपि जो चित्र सर्वत्र विद्यमान है , यह आप के अथक तप की कथा का गायन कर रही है | इस अथक तप का एक अंश मात्र हमें भी देवें जिस से हमारे पांवों की पवित्रता के साथ ही साथ हमारा पूरे का पूरा आचरण भी पवित्र हो कर मलों से रहित हो जावे | यह राग – द्वेष ही हैं , जो हमारे आचरण को अपवित्र करता है | इन पर विजय पाने का साधन ही तप है और निरंतर तथा मनोयोगपूर्वक पुरुषार्थ करने को ही तप कहते हैं | 
सौ वर्ष तक समर्थ रहें 
     हे प्रभो ! आप अनंत बलों के भंडारी है | कुछ माँगा उसी से ही जाता है , जिस के पास देने को कुछ हो | अनन्त बलों के भंडारी होने के कारण हमारी वाणी तथा भुजाओं को बल से भर दो | इसके साथ ही हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ तथा कर्मेन्द्रियाँ यथा आँख , कान, हाथ , पाँव आदि सब को अपनी शक्ति से सशक्त करदो | हमारा शरीर , जिसे देव - मंदिर कहते हैं , इसे उत्तम आहार, व्यायाम तथा प्राणायाम आदि द्वारा इसके प्रत्येक अंग को पुष्ट कर दो | काम , क्रोध , मोह ,लोभ आदि विकारों से हमें बचाते हुए हमारे अंगों को शक्ति और स्फूर्ति से भरने वाले वीर्य रूपि शक्ति से भरपूर सिंचित करें ताकि धूप , वर्षा , गर्मी , सर्दी आदि विभिन्न प्रकार के तूफानों से यह स्थिर व अडिग रहे | इतना ही नहीं निरंतर अडिग रहते हुए यह सौ वर्ष तक अपना कार्य करने में समर्थ बना रहे |  
हमारे शरीर के सब अंग पवित्र करो
      हे दयालु पिता ! आप की सर्वव्यापकता और आप की महानता के संपर्क में आकर हम नित्य आगे बढ़ते हुए विशाल, प्रगतिशील और व्यापक बनें | हमारे अंदर संकीर्णता , प्रमाद , स्वार्थ आदि की अनेक क्षुद्र भावनाएं भरी हैं | आप हम पर दया करते हुए इन सब क्षुद्र भावनाओं को हम से दूर कर देवें तथा सदा आगे बढ़ने की इच्छा तथा व्यापक विचार ही हमारे जीवन का आधार हों | इस से हमारे शरीर के सब अंग पवित्र करो |
प्रभो ! हमारे हृदय मंदिर में आओ 
      हे पूजनीय प्रभो ! आप के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए हमने अपने हृदय तथा शरीर रूपि इस मंदिर को झाड फूंक कर हमने इसका भली प्रकार से मार्जन कर लिया है | अब यह पूर्णतया पवित्र और साफ़ हो गया है | हमें आप से मिलने की एक लम्बे अंतराल से अभिलाषा है | आओ हमारा स्नेह भरा स्वागत स्वीकार करते हुए इसमें प्रवेश करो |
डा. अशोक आर्य 

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