“ईश्वर की उपासना से उपासक को ज्ञान व ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं”

“ईश्वर की उपासना से उपासक को ज्ञान व ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं”

“ईश्वर की उपासना से उपासक को ज्ञान व ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं”

“ईश्वर की उपासना से उपासक को ज्ञान व ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं”
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मनुष्य जब किसी कार्य को उचित रीति से ज्ञानपूर्वक करता है तो उसका इष्ट व प्रयोजन सिद्ध होता है। उपासना भी ईश्वर को उसके यथार्थ स्वरूप में जानकर उचित विधि से करने पर ही सार्थक व लाभकारी सिद्ध होती है। उपासना के लिये ही प्राचीन काल में ऋषि पतंजलि ने योगदर्शन ग्रन्थ का निर्माण किया था। महाभारत युद्ध के बाद न केवल वेदों का ही अभ्यास न होने के कारण यह ग्रन्थ विलुप्त हुए अपितु वेदानुकूल सभी वेदांग एवं उपांग जिनमें दर्शन एवं उपनिषद सहित मनुस्मृति ग्रन्थ भी सम्मिलित हैं, यह सभी ग्रन्थ व इनके सत्य आशय भी देश की जनता की आंखों से ओझल हो गये थे। इस काल में वेदों का ज्ञान कुछ गिने चुने विद्वानों तक ही सीमित हो गया था। ऐसी स्थिति में सन् 1863 व उसके कुछ समय बाद ऋषि दयानन्द (1825-1883) ने देश की जनता का ध्यान वेदों और उसके सत्य सिद्धान्तों की ओर दिलाया और इतिहास में पहली बार लोकभाषा हिन्दी में वेदों की सभी मान्यताओं का न केवल मौखिक प्रचार ही किया अपितु वेदों के सत्य वेदार्थ को सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित वेदों पर संस्कृत व हिन्दी भाष्य के माध्यम से जन सामान्य के सम्मुख प्रस्तुत किया। वेदों के गूढ़ अर्थ जो अधिकांश विद्वान भी नही जानते थे और अपनी मिथ्या कल्पनाओं में ही जीवन व्यतीत कर देते थे, न केवल उनका, अपितु साधारण मनुष्य को भी वेद के गूढ़ अर्थों का यथार्थ ज्ञान भी ऋषि दयानन्द के प्रचार तथा ग्रन्थों के अध्ययन से हुआ। ऋषि दयानन्द ने अपने सत्यार्थप्रकाश तथा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में ईश्वर, जीवात्मा तथा सृष्टि के ज्ञान सहित मनुष्य के कर्तव्यों का भी ज्ञान कराया है। ऐसा ज्ञान ऋषि दयानन्द से पूर्व किन्हीं पुस्तकों व मताचार्यों के उपदेशों से भी प्राप्त नहीं होता था। ऋषि दयानन्द के प्रयासों से साधारण मनुष्य भी ईश्वर सहित जीवात्मा व प्रकृति के यथार्थ स्वरूप से परिचित हुए तथा उन्हें धर्म के सत्यस्वरूप का, जो वस्तुतः वेदाचरण व सत्याचरण ही है, बोध हुआ। ऋषि दयानन्द के वेदप्रचार से मत-मतान्तरों की अधिकांश शिक्षायें अविद्यायुक्त होने से निरर्थक हो गईं परन्तु अनेक कारणों से लोगों ने अविद्या को छोड़ा नहीं है। ऋषि दयानन्द विद्या व वेद का प्रचार कर एक महापुरुष व एक सच्चे ऋषि का कर्तव्य पूरा कर गये हैं। हमारा कर्तव्य हैं कि हम उनकी भावनाओं व कार्यों को जानकर उसका सदुपयोग करते हुए अपने जीवन की उन्नति करें तथा वैदिक ज्ञान से प्राप्त होने वाली सांसारिक तथा पारलौकिक उन्नति दोनों को ही प्राप्त करें।

‘मनुष्य’ चेतन जीवात्माओं का मनुष्य योनि में जन्म होने तथा उसके मृत्यु परिवर्तन जीवन को कहते हैं। मनुष्य की चेतन आत्मा अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम होने सहित अनादि व नित्य सत्ता है। यह अविनाशी व अमर है। शस्त्र इसे काट नहीं सकते, वायु इसे सूखा नहीं सकती, जल इसे गीला नहीं कर सकते तथा अग्नि इसे जला कर नष्ट नहीं कर सकती। यह आत्मा व सभी आत्मायें परमात्मा की कृपा से अपने पूर्वजन्मों के कर्मों का भोग करने के लिए जन्म लेती हैं। आत्मा को जन्म मिलने का भी एक मुख्य प्रयोजन होता है। यह प्रयोजन आत्मा में ज्ञान की उन्नति करने सहित सत्कर्मों को प्राप्त होकर जन्म व मरण के बन्धनों से मुक्त होकर पूर्णानन्द से युक्त सर्वव्यापक व सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा को प्राप्त होना होता है। मुक्ति में भी आत्मा का नाश व अभाव नहीं होता है। आत्मा मुक्ति वा मोक्ष में परमात्मा के सान्निध्य में रहकर एवं ईश्वर प्रदत्त अनेक शक्तियों से युक्त होकर सुख व आनन्द का भोग करती है। यह परमपद मोक्ष ही परम ऐश्वर्य होता है। यह ज्ञान व विद्या सहित वेदविहित सत्मकर्मों को करने से प्राप्त होता है। इसकी उपलब्धि जीवात्मा को मनुष्य योनि में जन्म लेने पर ईश्वर के यथार्थस्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर व उसकी अहर्निश उचित विधि से उपासना करने सहित वेदों में परमात्मा की आज्ञा के अनुकूल कर्म करने से प्राप्त होती है। स्वाध्याय भी उपासना का एक भाग होता है। स्वाध्याय से मनुष्य के ज्ञान में वृद्धि होती है। स्वाध्याय वेद एवं वेदानुकूल ग्रन्थों का ही करना चाहिये और शास्त्रों व किसी भी ग्रन्थ की उसी बात को मानना चाहिये जो ज्ञान व तर्क से सत्य होती हों। मनुष्य को असत्य का त्याग तथा सत्य का ग्रहण करना चाहिये। तभी वह मनुष्य होने की अर्हता को पूरी करता है। ऐसा मनुष्य ही उपासना करते हुए ईश्वर से सद्ज्ञान व सद्प्रेरणायें प्राप्त करता है। उसका अज्ञान व अज्ञान से प्राप्त होने वाले सभी क्लेश व दुःख दूर हो जाते हैं। अतः सभी मनुष्यों को स्वाध्याय व सत्पुरुषों की संगति कर उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिये और ईश्वर की उपासना तथा परोपकारमय सत्कर्मों को करके मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने चाहियें।

ईश्वर की उपासना सही विधि से हो इसके लिये ऋषि दयानन्द ने पंचमहायज्ञ विधि पुस्तक की रचना की है। इसमें प्रथम स्थान पर सन्ध्या जिसे ब्रह्मयज्ञ भी कहा जाता है, उसकी विधि को प्रस्तुत किया गया है। इस विधि पर अनेक विद्वानों की विद्वतापूर्ण टीकीयें भी उपलब्ध हैं। पं. विश्वनाथ वेदोपाध्याय, पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय, पं. चमूपति जी तथा स्वामी आत्मानन्द जी आदि की सन्ध्या की व्याख्याओं से लाभ उठाया जा सकता है। इनका अध्ययन करने पर हम ईश्वर की सही विधि से उपासना जिसमें ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना भी सम्मिलित होती है, कर सकते हैं। उपासना में मनुष्य को यम व नियमों का पूर्णरूपेण पालन करना होता है। यम पांच होते हैं जिनके नाम हैं अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह। नियम भी पांच हैं जिनके नाम हैं शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान। अष्टांग योग की विधि से उपासना करने से शीघ्र सफलता मिलती है। इस विधि से उपासना करने से ईश्वर के साथ संगति होने से ईश्वर के गुणों का उपासक की आत्मा में आधान व प्रवेश होता है। इससे उपासक की आत्मा के दुर्गुण व दुव्र्यसन छूट जाते हैं। उपासक के गुण, कर्म व स्वभाव में सुधार होता जाता है और वह समय बीतने के साथ यथासम्भव ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव के अनुरूप बन जाते हैं। इस प्रकार से मनुष्य उपासना को करके अपनी आत्मा की उन्नति को प्राप्त होता है। इस विधि से उपासना करते हुए उपासक को सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी ईश्वर का साक्षात्कार भी होता है। ऋषि दयानन्द ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए सिद्ध योगी थे। जो भी मनुष्य इस विधि से उपासना करेगा वह ईश्वर के निकट से निकटतर होता जायेगा और अन्ततः ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है। आर्यसमाज ही ऐसा संगठन है जिसके देश देशान्तर के सभी अनुयायी इस वैदिक विधि से ही ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना करते हैं। अन्य सब लोगों को भी अपने लाभ व उन्नति के लिये वैदिक विधि से ही उपासना करनी चाहिये और इसके विपरीत व विरुद्ध उपासना विधियों का त्याग कर देना चाहिये।

ईश्वर सर्वज्ञ होने सहित सब ऐश्वर्यों का स्वामी भी है। सभी ऐश्वर्य सृष्टिकर्ता ईश्वर ने बनाकर ही मनुष्यों को प्रदान किये हैं। सबको ईश्वर की व्यवस्था से अपने अपने कर्म व पुरुषार्थ के अनुसार सुख व ऐश्वर्य प्राप्त होता है। अतः उपासना करने पर उपासक को भी ईश्वर उसकी योग्यता के अनुसार आवश्यक मात्रा में सभी ऐश्वर्य प्रदान करते हैं। सच्चे व ईश्वर में दृण विश्वास रखने वाले उपासकों को कभी किसी आवश्यक पदार्थ का अभाव व न्यूनता नहीं होती। ईश्वर एक साधारण चींटी तक के भोजन की व्यवस्था करता है। क्या वह अपने किसी पुरुषार्थी उपासक को उसके लिए आवश्यक पदार्थों से दूर रख सकता है? कदापि नहीं। हमने अनेक आर्य महापुरुषों के जीवन चरित पढ़े हैं। परमात्मा की कृपा से सभी जीवन में सन्तुष्ट व सम्पन्न रहे। सबकी सब आवश्यकतायें परमात्मा ने पूरी की। अतः मनुष्य को धन, सम्पत्ति, ऐश्वर्य, शारीरिक सुख, बल आदि की प्राप्ति के लिये भी परमात्मा से ही प्रार्थना करनी चाहिये। परमात्मा उन्हें अवश्य पूरी करते हैं।

वैदिक उपासना की यही विशेषता है कि इससे मनुष्य की ज्ञान, सुख, ऐश्वर्य तथा यश प्राप्ति आदि सभी प्रकार की आवश्यकतायें पूर्ण होती हैं। सत्यार्थप्रकाश, वेदों का भाष्य तथा ऋषि दयानन्द का जीवन चरित्र पढ़ने से इसका पूरा विश्वास होता है। इस लेख को हम यहीे विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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