● वेद और योग का दीवाना - पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी ●
● वेद और योग का दीवाना - पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी ●

● वेद और योग का दीवाना - पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी ●
- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती
किसी एक धुन के सिवा मनुष्य कोई बड़ा काम नहीं कर सकता। धुन भी इतनी कि दुनिया उसे पागल कहे। पं. गुरुदत्त के अन्दर पागलपन तक पहुँची हुई धुन विद्यमान थी। उसे योग और वेद की धुन थी। जब गुरुदत्तजी स्कूल की आठवीं जमात में पढ़ते थे, तभी से उन्हें शौक था कि जिसके बारे में योगी होने की चर्चा सुनी, उसके पास जा पहुँचे। प्राणायाम का अभ्यास आपने बचपन से ही आरम्भ कर दिया था। इसी उम्र में एक बार बालक को एक नासारन्ध्र को बन्द करके साँस उतारते-चढ़ाते देखकर माता बहुत नाराज़ हुई थी। उसे स्वभावसिद्ध मातृस्नेह ने बतला दिया कि अगर लड़का इसी रास्ते पर चलता गया तो फ़क़ीर बनकर रहेगा।
अजमेर में योगी [महर्षि दयानन्द] की मृत्यु को देखकर योग सीखने की इच्छा और भी अधिक भड़क उठी। लाहौर पहुँचकर पण्डितजी ने योगदर्शन का स्वाध्याय आरम्भ कर दिया। आप अपने जीवन घटनाओं को लेखबद्ध करने और निरन्तर उन्नति करने के लिए डायरी लिखा करते थे। उस डायरी के बहुत-से भाग कई सज्जनों के पास विद्यमान थे। उनके पृष्ठों से चलता है पता चलता है कि ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, पण्डितजी की योगसाधना की इच्छा प्रबल होती गई। आप प्रतिदिन थोड़ा-बहुत प्राणायाम करने लगे। आपकी योग की धुन इतनी प्रबल हो गई कि कुछ समय तक गवर्नमैण्ट कॉलेज में साइन्स के सीनियर प्रोफेसर रहकर आपने वह नौकरी छोड़ दी। आपके मित्रों ने बहुत आग्रह किया कि आप नौकरी न छोड़िए। केवल दो घण्टे पढ़ाना पड़ता है, उससे कोई हानि नहीं। आपने उत्तर दिया कि प्रात:काल के समय में योगाभ्यास करना चाहता हूँ, उस समय को मैं कॉलेज के अर्पण नहीं कर सकता। यह पहला ही अवसर था कि पंजाब का एक हिन्दुस्तानी ग्रेजुएट गवर्नमेंट कॉलेज में साइन्स का प्रोफेसर हुआ था। कॉलेज के अधिकारियों और हितैषियों ने बहुत समझाया, परन्तु योग के दीवाने ने एक न सुनी, एक न मानी।
पं. गुरुदत्तजी को दूसरी धुन थी वेदों का अर्थ समझने की। वेदों पर आपको असीम श्रद्धा थी। वेदभाष्य का आप निरन्तर अनुशीलन करते थे। जब अर्थ समझने में कठिनता प्रतीत होने लगी तब अष्टाध्यायी और निरुक्त का अध्ययन आरम्भ हुआ। धीरे-धीरे अष्टाध्यायी का स्वाध्याय पण्डितजी के लिए सबसे प्रथम कर्तव्य बन गया, क्योंकि आप उसे वेद तक पहुँचने का द्वार समझते थे। आपका शौक उस नौजवान-समूह में भी प्रतिबिम्बित होने लगा, जो आपके पास रहा करता था। सुनते हैं कि मा. दुर्गादासजी, ला. जीवनदासजी, मा. आत्मारामजी पं. रामभजदत्तजी और लाला मुन्शीरामजी की बगल में उन दिनों अष्टाध्यायी दिखाई देती थी।
अष्टाध्यायी, निरुक्त और वेद का स्वाध्याय निरन्तर चल रहा। यदि उसमें नाग़ा हो जाती तो पण्डितजी को अत्यन्त दु:ख होता। वह दु:ख डायरी के पृष्ठों में प्रतिबिम्बित है। आपकी प्रखर बुद्धि के सामने दुरूह-से-दुरूह विषय सरल हो जाते थे, और बड़े-बड़े पण्डितों को आश्चर्यित कर देते थे। श्री स्वामी अच्युतानन्दजी अद्वैतवादी संन्यासी थे। पं. गुरुदत्तजी आपके पास उपनिषदें पढ़ने आ जाया करते थे। विद्यार्थी की प्रखर बुद्धि का स्वामीजी पर यह प्रभाव पड़ा कि शीघ्र ही शिष्य के अनुयायी हो गये । स्वामीजी पं. गुरुदत्तजी को पढ़ाते-पढ़ाते स्वयं द्वैतवादी बन गये और आर्यसमाज के समर्थकों में शामिल हो गये।देहरादून के स्वामी महानन्दजी प्रसिद्ध दार्शनिक थे। आपको भी पं. गुरुदत्तजी के अध्यापक बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सच्छिष्य के प्रभाव से आप भी आर्यसमाजी बन गये।
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