स्वाध्याय में प्रमाद न करें

स्वाध्याय में प्रमाद न करें

स्वाध्याय में प्रमाद न करें

स्वाध्याय में प्रमाद न करें

मिमीहि श्लोकमास्ये पर्जन्य इव ततन: । गाय गायत्रमुक्थ्यम् ।।
―(ऋ० १/३८/१४)
हे विद्वान् मनुष्य ! तू (आस्ये) अपने मुख में (श्लोकम्) वेद की शिक्षा से युक्त वाणी को (मिमीहि) निर्माण कर और उस वाणी को (पर्जन्य इव) जैसे मेघ वृष्टि करता है, वैसे (ततन:) फैला और (उक्थ्यम्) कहने योग्य (गायत्रम्) गायत्री छन्दवाले स्तोत्ररुप वैदिक सूक्तों को (गाय) पढ़ तथा पढ़ा।

वेद मनुष्य को प्रेरणा दे रहा है कि तू वेदवाणी का स्वाध्याय कर। वेदवाणी के स्वाध्याय से जो ज्ञान तुझे प्राप्त हो, तू उसे ऐसे फैला जैसे बादल वर्षा फैलाता है।अर्थात् ज्ञान को अपने तक ही सीमित न रक्खें बल्कि उसको लोगों में फैलायें, प्रचार करें।

स्वाध्याय और प्रवचन दोनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। स्वाध्याय शब्द के दो अर्थ हैं। स्वाध्याय का पहला अर्थ है वेद और वेदसम्बन्धी ग्रन्थों का अध्ययन। दूसरा अर्थ है स्व + अध्याय अर्थात् अपना अध्ययन। अपने अध्ययन से अभिप्राय है आत्म-निरीक्षण

स्वाध्याय का पहला अर्थ है सद्ग्रन्थों का पाठ। आध्यात्मिक उन्नति के तीन साधन हैं―ईश्वरभक्ति, सत्सङ्ग और स्वाध्याय। सदग्रन्थों का पाठ अमृतपान के समान होता है और असदग्रन्थों का पाठ विष-पान के समान।

वैदिक साहित्य में स्वाध्याय की बहुत महिमा गाई गई है।
स्वाध्यायान्मा प्रमद: ।
–(तैत्तिरीयोपनिषद् १/११)
'स्वाध्याय करने में प्रमाद न करना।'

योगदर्शन में स्वाध्याय की महिमा का वर्णन करते हुए महर्षि पतञ्जलि ने लिखा है―

तप: स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग: ।
―(योग० २/१)
तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान इनको क्रियायोग कहते हैं।

क्रियायोग का अर्थ है योग के साधन। इनके करने से अस्थिर चित्तवाला भी योग को प्राप्त हो जाता है। इन तीनों में एक 'स्वाध्याय' है
आगे कहा है―

समाधिभावनार्थ: क्लेशतनूकरणार्थश्च ।
―(योग० २/२)
उक्त क्रियायोग समाधि को सिद्ध करता है और अविद्यादि क्लेशों को शिथिल करता है।

कहने का आशय यह है कि समाधि को सिद्ध करने और क्लेशों को शिथिल करने का एक साधन स्वाध्याय भी है।

मनुमहाराज ने मनुस्मृति में स्वाध्याय पर बहुत बल दिया है। गृहस्थ के लिए मनु महाराज ने पाँच यज्ञों का विधान किया है। उन पाँच में से पहला यज्ञ ब्रह्मयज्ञ है―

अध्यापनं ब्रह्मयज्ञ: ।
―(मनु० ३/७०)
अर्थात् स्वाध्याय, सन्ध्या और योगाभ्यास ब्रह्मयज्ञ कहलाते हैं।

ब्रह्मयज्ञ का अर्थ है―ईश्वरभक्ति और स्वाध्याय।
आगे कहा है―

स्वाध्यायेनार्चयेतर्षिन्।
–(मनु० ३/८१)
स्वाध्याय से ऋषियों की पूजा करे अर्थात् ऋषियों की पूजा स्वाध्याय से होती है।

मनु महाराज ने नित्य कर्मों और स्वाध्याय में किसी प्रकार की छुट्टी नहीं मानी है―

नैत्यके नास्त्यनध्यायो ब्रह्मसत्रं हि तत्स्मृतम् ।
ब्रह्माहुतिहुतं पुण्यमनध्यायवषट्कृतम् ।।
―(मनु० २/१०६)
भावार्थ―नित्य कर्मों में कभी छुट्टी नहीं हुआ करती। यह तो निश्चय से ब्रह्म-सत्र ही होता है। यज्ञ, सन्ध्या, स्वाध्याय पुण्य के कारण होते हैं। अनध्याय तो निन्दित कर्मों में होना चाहिए।

चाणक्य जी ने भी स्वाध्याय के सन्दर्भ में कहा है―

श्लोकेन वा तदर्धेन पादेनैकाक्षरेण वा ।
अवन्ध्यं दिवसं कुर्याद् दानाध्ययनकर्मभि: ।।
―(चा० नी० २/१३)
भावार्थ―मनुष्य को चाहिए कि प्रतिदिन एक श्लोक, आधा श्लोक, एक पाद अथवा एक अक्षर का स्वाध्याय करे और दान-अध्ययन करता हुआ ही दिन को सार्थक करे।

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