वेदों में योग और योग से होने वाली उपलब्धियाँ
वेदों में योग और योग से होने वाली उपलब्धियाँ

ओं खम्ब्रह्म।
नमो ब्रह्मणे नमस्ते वायो त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि ऋतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु तद्वक्तारमवतु। अवतु माम्। अवतु वक्तारम्।
ओ३म् शान्तिश्शान्तिश्शान्ति:।।
योग और समाधि
वेदों में योग और योग से होने वाली उपलब्धियाँ
महर्षि पतञ्जलि जी योग दर्शन में कहते हैं कि “योग: समाधि” अर्थात् समाधि की स्थिति ही योग है, व जब मनुष्य समाधि को प्राप्त कर लेता है तभी योगी कहलाता है और योग से होने वाली सभी सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है।
योग दर्शन में अष्टांग योग को ही मनुष्यों को अपनाना आवश्यक है अन्य सभी आसन व्यायाम आदि योग की श्रेणी में नहीं आते।
योग ऋषियों की समाधिस्थ स्थिति को दर्शाता है एवं परम पिता परमेश्वर की प्राप्ति को एक मात्र वैदिक मार्ग है। ईश्वर की प्राप्त समाधि की सिद्धि में ही हो सकती है अन्य दूसरा कोई मार्ग एवं उपाय नहीं है। जो विभिन्न मत पंथों में फँसे हुये हैं या विभिन्न प्रकार के ईश्वरों की कल्पना करके अपने अपने मत पंथ को श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयास करते हैं वे अनार्य, अवैदिक, ढोंगी, पाखंडी, धूर्त, महामूढ़, अभिमानी होकर पापों से महान दु:ख को भोगता है और इस भवसागर में बार बार जन्म लेता और मरता है।
अष्टांग योग के विभिन्न अंगों को समझने का प्रयास करते हैं:—
यम।
नियम।
आसन।
प्राणायाम।
प्रत्याहार।
धारणा।
ध्यान।
समाधि।
योग में पहला भाग यम है— जिसके पाँच भाग हैं।
१. अहिंसा
२. सत्य
३. अस्तेय
४. ब्रह्मचर्य
५. अपरिग्रह
योग में दूसरा भाग नियम है— जिसके भी पाँच भाग हैं।
१. शौच
२. सन्तोष
३. तप
४. स्वाध्याय
५. ईश्वर प्रणिधान
यहाँ हम योग के प्रथम दो अंगों का ही वर्णन एवं विश्लेषण करेंगे। अन्य छ: अंगों का उल्लेख दूसरे भाग में किया जायेगा जिससे सभी विद्वान जन विश्लेषण एवं संसोधन करके त्रुटियों को दूर कर सीखने सिखाने का प्रयास करेंगे।
योग अर्थात् “ योगः चित्तवृत्तिनिरोधः”। ‘चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग कहते हैं’। अष्टांग योग (आठ अंगों वाला योग), को आठ अलग-अलग चरणों वाला मार्ग नहीं समझना चाहिए; यह आठ आयामों वाला एक मार्ग है जिसमें आठों आयामों का अभ्यास एक साथ किया जाता है।
योग: समाधि:।। स च सार्वभौमश्चित्तस्य धर्म:।। स: निर्बीज: समाधि:।। स्वरूपप्रतिष्ठा तदानीं चितिशक्तिर्यथा कैवल्यों।। जब मनुष्य रजोगुण, तमोगुण, युक्त कर्मों से भी मन को रोक कर शुद्ध सत्त्वदुणयुक्त कर्मों से भी मन को रोक शुद्ध सत्त्वगुणयुक्त होकर, पश्चात् एकाग्र होकर एक परमात्मा में चित्त को ठहराता है। जब चित्त एकाग्र और निरुद्ध होता है तब सबके द्रष्टा परम पिता परमेश्वर के स्वरूप में जीवात्मा की स्थिति होती है। यही योग है। यही समाधि है।
योगाड्गानुष्ठानादशुद्धि़क्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्याते:।। योग के अंगों का अनुष्ठान (आचरण) करने से अशुद्धि का नाश होकर विवेकख्याति पर्यन्त ज्ञान बढ़ता जाता है जब तक समाधि की स्थिति न हो जाये तब तक बढ़ता रहता है।
सर्वप्रथम पाँच यम
अहिंसा :- सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोह:।। हर प्रकार से, सब कालों में, हर प्राणी से वैर (द्वेष) भाव को त्याग देना हिंसा है। द्वेष रहित होकर दुष्ट, दुराचारी को दंड देना और प्राण तक ले लेना भी अहिंसा ही है। अहिंसा के आधार ही योग के अन्य भाग एवं अंग रहते हैं बिना अहिंसा के पालन के योग के अन्य अंगों का पालन करना अत्यन्त कठिन है। अत: “अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च: l" अहिंसा ही मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ धर्म बताया गया है, परन्तु धर्म की रक्षा के लिये हिंसा अर्थात् न्याय पूर्वक हिंसा करना भी अहिंसा ही है।