सत्यार्थ प्रकाश भूमिका से

सत्यार्थ प्रकाश भूमिका से

सत्यार्थ प्रकाश भूमिका से

सत्यार्थ प्रकाश भूमिका से 


 यद्यपि आजकल बहुत से विद्वान प्रत्येक मतों में हैं, वे पक्षपात छोड़ सर्वतन्त्र सिद्धान्त, अर्थात जो जो बातें सबके अनुकूल, सबमें सत्य हैं, उनका ग्रहण और जो एक दूसरे से विरुद्ध बातें हैं उनका त्याग कर परस्पर प्रीति से वर्तें - वर्तावें, तो जगत का पूर्ण हित होवे, क्योंकि विद्वानों के विरोध से अविद्वानों में विरोध बढ़कर, अनेकविधि दुःख की वृद्धि और सुख की हानि होती है। इस हानि ने, जो कि स्वार्थी मनुष्यों को प्रिय है, सब मनुष्यों को दुःखसागर में डुबा दिया है। इनमें से जो कोई सार्वजनिक हित लक्ष्य में धर प्रवृत्त होता है, उससे स्वार्थी लोग विरोध करने में तत्पर होकर, अनेक प्रकार विघ्न करते हैं। परन्तु - 

'सत्यमेव जयति नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः'

सर्वदा सत्य का विजय और असत्य का पराजय और सत्य ही से विद्वानों का मार्ग विस्तृत होता है। इस दृढ़ निश्चय के आलम्ब से आप्त लोग परोपकार करने से उदासीन होकर कभी नहीं सत्यार्थ प्रकाश करने से हटते । यह बड़ा दृढ़ निश्चय है कि - 

"यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्"

इसका अभिप्राय यह है कि जो जो विद्या और धर्म प्राप्ति के कर्म हैं वे प्रथम करने में विष के तुल्य और पश्चात अमृत के सदृश होते हैं । ऐसी बातों को चित्त में धर के इस ग्रन्थ को रचा है । श्रोता वा पाठकगण भी प्रथम प्रेम से देख के, इस ग्रन्थ का सत्य-सत्य तात्पर्य जानकर यथेष्ट करें।

इसमें यह अभिप्राय रखा है कि जो जो सब मतों में सत्य सत्य बातें हैं वे-वे सबमें अविरुद्ध होने से, उनका स्वीकार करके, जो-जो मतमतान्तरों में मिथ्या बातें हैं, उन-उनका खण्डन किया गया है। इसमें यह भी अभिप्राय रखा है कि सब मतमतान्तरों की गुप्त वा प्रकट बुरी बातों का प्रकाश कर, विद्वान-अविद्वान सब साधारण मनुष्यों के सामने रखा है, जिससे सबसे सबका विचार होकर, परस्पर प्रेम होके, एक मतस्थ होवें।

यद्यपि मैं आर्यावर्त देश में उत्पन्न हुआ और वसता हूं, तथापि जैसे इस देश के मतमतान्तर की झूंठी बातों का पक्षपात न कर, यथातथ्य प्रकाश करता हूँ, वैसे ही दूसरे देश वा मत वालों के साथ भी वैसा ही वर्तता हूँ । जैसा स्वदेशवालों के साथ मनुष्योन्नति के विषय में वर्तता हूँ, वैसा विदेशियों के साथ भी तथा सब सज्जनों को भी वर्तना योग्य है। क्योंकि मैं भी जो किसी एक का पक्षपाती होता तो जैसे आजकल के स्वमत की स्तुति, मण्डन और प्रचार करते हैं और दूसरे  मत की निन्दा, हानि और और बन्ध करने में तत्पर होते हैं, वैसा मैं भी होता, परन्तु ऐसी बातें मनुषयपन से बहिःहै। क्योंकि जैसे पशु बलवान होके निर्बलों को दुःख देते हैं और मार भी डालते हैं, जब मनुष्य शरीर पाके वैसा ही कर्म करते हैं तो वे मनुष्य स्वभाव युक्त नहीं, किन्तु पशुवत् हैं । जो बलवान होकर निर्बल की रक्षा करता है, वही मनुष्य कहाता है। और जो स्वार्थवश होकर परहानि मात्र करता है, वह पशुओं का बड़ा भाई है।


महर्षि दयानन्द सरस्वती

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