महात्मा बुद्ध और वैदिक कर्मफल व्यवस्था
महात्मा बुद्ध और वैदिक कर्मफल व्यवस्था
महात्मा बुद्ध और वैदिक कर्मफल व्यवस्था
कार्तिक अय्यर
नमस्ते मित्रों। कुछ वामपंथी भीमसैनिक मानते हैं कि पुनर्जन्म, परलोक आदि सब गप्प है। शरीर नष्ट होने के बाद आत्मा खत्म हो जाता है। किसी को किसी कर्म का फल नहीं मिलता आदि आदि। परंतु भगवान बुद्ध वैदिक कर्म फल व्यवस्था मानते थे।
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतसमाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोsस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।
( यजुर्वेद ४०/२)
" शास्त्र नियमतित कर्म करते हुये सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करनी चाहिये।इस प्रकार मनुष्य कर्म से लिप्त नहीं होता, इससे भिन्न कोई मार्ग नहीं है, जिससे कर्मबंधन से मुक्त हो सके।"
भगवद्गीता २/५०,५१ और ५/१० में भी यही लिखा है।
कर्मजं बुद्धि़युक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः
जन्मबंधविनिर्मुक्ताः पदं गच्छंत्यनायम्।।
( गीता २/५१)
"इस तरह ईश्वर भक्ति में लगे रहकर बड़े बड़े ऋषि मुनि या भक्तगण अपने आपको भौतिक कर्मों के फलों से मुक्त कर लेते हैं।इस प्रकार जीवन मरण के चक्र से छूटकर मुक्त पद को प्राप्त होते हैं"
पाठकगण चकित होंगे कि लगभग ऐसी ही कर्मफल व्यवस्था बुद्ध मानते थे।
देखिये, धम्मपद :-
१:- सदापुण्य कर्म करो व पाप का त्याग करो:-
अभित्थरेथ कल्याणे पापा चित्तं निवारये।
दन्धं हि करोतो पुञ्ञं पापस्मिं रमती मनो।।
( धम्मपद पापवग्गो क्रमिक श्लोक ११६)
"पुण्य कर्म करने की शीघ्रता करे।पाप कर्म से चित्त को निवृत्त करें। पुण्य कर्म करने में आलस्य करने वाले का मन पाप में रमने लगता है।"
वाणिजो व भयं वग्गं अप्पसत्थो महद्धनो।
विसं जीवितुकामो व पापानि परिवज्जये।।
( श्लोक १२३)
'जैसे जीने की इच्छा करने वाला व्यक्ति विष को त्याग देता है, उसी प्रकार पाप से दूर रहना चाहिये। "३:- पाप पुण्य उभयत्रः फलतः :-
इध सोचति पेच्च सोचति पापकारी उभयत्थ सोचति।
सो सोचति सो विहञ्ञति दिस्वा कम्म किलिट्ठमत्तनो।।
इध मोदति पेच्च मोदति कतपुञ्ञो उभयत्थ मोदति।
सो मोदति सो मपोदति दिस्वा कम्म विसुद्धिमत्तनो।।
( विनेबा भावे, धम्मपद ४/९,१०)
"पाप कर्म का कर्ता लोक परलोक दोनों में शोक करता है।अपना अशुभ कर्म देखकर तपड़पता है, शोक करता है।।पुण्यकर्म का कर्ता इस लोक में मुदित होकर परलोक में जाकर भी मुदित होता है। अपना पुण्य देखकर मुदित होता है।।"
इससे सिद्ध होता है कि बुद्ध भी आवागमन, लोक परलोक, पुनर्जन्म में विश्वास करते थे़ पर खेद है कि नवबौद्ध लोग इनमें कुछ श्रद्धा नहीं करते। वे पूर्णरूप से चार्वाक दर्शन का अनुसरण कर रहे हैं।
४:- कर्मफल अपरिहार्य है:-
न अंतलिक्खे न समुद्दमज्झे न पब्बतानं विवरं पविस्स।
न विज्जती सो जगति प्पदेसो यत्र ट्ठितो मुञ्चेय्य पापकम्मा।।
न अंतलिक्खे.....। न विज्जती सो जगति प्पदेसो यत्र ट्ठितं न प्पसहेथ मच्चु।।
( धम्मपद पापवग्गो क्रमिक श्लोक १२७,१२८)
" संसार में ऐसा कोई स्थान नहीं है- न अंतरिक्ष में, न समुद्र में, न पर्वतों में -जिसमें घुसकर पापकर्म और मृत्यु से बचा जा सकता है।"
यहां महाभारत के इस श्लोक का भाव भी ऐसा ही है:-
नाधर्मः कारणापेक्षी कर्तारमभिमुंचति। कर्ताखलु यथा कालं ततः समभिपद्यते॥ ( महा0 शान्ति0 अ॰ 298)
अधर्म किसी भी कारण की अपेक्षा से कर्ता को नहीं छोड़ता निश्चय रूप से करने वाला समयानुसार किये कर्म के फल को प्राप्त होता है। 8।
निष्कर्ष:- महात्मा बुद्ध की पुण्य पाप पर पूरी श्रद्धा थी।चाहे जहां भी चला जाये, मनुष्य कर्म का फल प्राप्त कर ही लेता है;उसका कर्म उसे नहीं छोड़ता। साथ ही, जो पुण्यकर्मा है, वो इस लोक व परलोक में भी पुण्यफल प्राप्त करता है । इससे सिद्ध है कि बुद्ध भी पुनर्जन्म, परलोक मानते थे; पर उनके अनुयायी नहीं मानते और वैदिक धर्म का मजाक उड़ाते हैं।
इसलिये, कर्मफल की व्यवस्था अकाट्य है:-
अवश्यं लभते कर्ता फलं पापस्य कर्मणः।
घोरं पर्थ्यागते काले द्रुमः पुष्पमिवार्तपम्॥
( बाल्मी0 अरण्य0 स॰ 29)
हे कल्याणी! यदि जो कुछ भी शुभ-अशुभ करता है करने वाला वही अपने किये कर्मों के फल को प्राप्त होता है। 6।
करने वाला अपने पाप कर्मों का फल घोर काल आने पर अवश्य प्राप्त करता है। जैसे मौसम आने पर वृक्ष फूलों को प्राप्त होते हैं। 8।
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