ओ३म् जप से एकाग्रता और विघ्नों का नाश

ओ३म् जप से एकाग्रता और विघ्नों का नाश

ओ३म् जप से एकाग्रता और विघ्नों का नाश

ओ३म् जप से एकाग्रता और विघ्नों का नाश

'योगदर्शन' में तो अतिशीघ्र मन की एकाग्रता प्राप्त करने का सरल सीधा साधन ओ३म् का जप और ओ३म् के अर्थ का चिन्तन बतलाया है। 'योगदर्शन' के समाधिपाद में लिखा है:

तज्जपस्तदर्थभावनम् ।
―(योगदर्शन १ । २८ )
'उस ओ३म् का जप और उस ओ३म् के अर्थभूत ईश्वर का पुन:-पुन: चिन्तन करना चाहिये।'

इस ओ३म् का जप तथा ओ३म् के अर्थ-चिन्तन का फल यह लिखा है:

तत: प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च ।। १ । २९ ।।
'उक्त स्थान से विघ्नों का अभाव और आत्मा के स्वरुप का ज्ञान भी होता है।'

इतना बड़ा महत्त्व ओ३म्-जप तथा ओ३म् के अर्थों के चिन्तन का है। मन की एकाग्रता को प्राप्त करने के यत्न में जो साधक कटिबद्ध होते हैं, उनके मार्ग में नाना विघ्न भी आकर खड़े हो जाते हैं। उन्हीं विघ्नों की ओर ऊपर के सूत्र में संकेत किया गया है और इससे अगले दो सूत्रों में (३० तथा ३१ में) उन १४ विघ्नों तथा दोषों का वर्णन है जो योगी को सताते हैं। वे ये हैं :

(1) व्याधि=शारीरिक रोग, (2) स्त्यान=योग-साधनों में प्रवृत्ति न होना, (3) संशय, (4) प्रमाद, (5) आलस्य, (6) अविरति=वैराग्य का अभाव अर्थात् विषयों में आसक्ति, (7) भ्रान्ति-दर्शन=मिथ्या ज्ञान और ऊटपटाँग विचार, (8) अलब्ध-भूमिकत्व=साधन करने पर भी कोई स्थिति प्राप्त न होना, अनवस्थितत्त्व=ज्योतिदर्शन होकर ज्योति का लुप्त हो जाना, (10) दु:ख=आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक दु:ख, (11) दौर्मनस्य=जब इच्छा की पूर्ति न हो तो मन में एक प्रकार की अशान्ति या बेचैनी का होना, (12) अंगमेजयत्व=शरीर के अंगों में कम्पन होना, (13) श्वास=भीतरी कुम्भक में विघ्न होना, (14) प्रश्वास=बाहरी कुम्भक में विघ्न होना।

ये सारे-के-सारे दोष या विक्षेप भी ओ३म् के जप और परमात्म-तत्त्व का चिन्तन और ध्यान करने से दूर हो जाते हैं। 'योग-दर्शन' के बतलाये इस सरल, सुगम, सीधे मार्ग पर चलकर देखिये तो सही कि आपको ध्यान-अवस्था प्राप्त होती है या नहीं।

ओ३म्-जप की महिमा में इतना ही कहना पर्याप्त है कि:

जपात् सिद्धिर्जपात् सिद्धिर्जपात् सिद्धि: पुन:पुन: ।
'मन्त्र-जप सर्व सिद्धियों का अचूक मार्ग है।'

ओ३म् का जप ओ३म् का अर्थ समझते हुए जब अनन्य भाव से किया जाय तो मन की चंचलता मिटने लगती है। यह अनुभवसिद्ध तथ्य है कि जिसका स्मरण तथा जप बार-बार किया जाता है, उसके कुछ गुण उपासक में धीरे-धीरे आने लगते हैं। मनोविज्ञान के पण्डितों ने भी ये परिक्षाएँ की हैं और वे बतलाते हैं कि किसी भी बात की सूचनाएँ (Suggestion) बार-बार दुहराने से वे पुष्ट होती जाती हैं और कल्पना विश्वास के रुप में परिवर्तित होकर मनुष्य जैसा सोचता है वैसा ही हो जाता है। साधक जब ओ३म् का जप करता है और वह अन्त:करण से अनुभव करता है कि यह ओ३म् पवित्र है, निश्चल है तो साधक के अन्दर पवित्रता आने लगती है और उसका मन अचल होने लगता है।

'ध्यानबिन्दूपनिषद्' में भी ओंकार (ओ३म् नाम) द्वारा ध्यान-अवस्था में पहुँचने का विधान किया गया है :

ओंकारं यो न जानाति ब्राह्मणो न भवेत्तु स: ।
प्रणवो धनु: शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते ।।१४।।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ।
निवर्तन्ते क्रिया: सर्वास्तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।१५।।
'जो ओ३म् को नहीं जानता वह ब्रह्म को नहीं प्राप्त हो सकता। ओ३म् धनुष है, आत्मा स्वयं तीर है, ब्रह्म लक्ष्य है।।१५।।
जैसे एक तीरन्दाज निशाना लगाते समय तन्मय हो जाता है, उसी प्रकार ओ३म् की उपासना में तन्मय हो जाना चाहिये। ओ३म् के अतिरिक्त और कोई संकल्प-विकल्प चित्त में न आने पाय, फिर जीवात्मा ब्रह्म को प्राप्त हो जायेगा।' ।।१५।।
यही बात 'प्रश्नोपनिषद्' के ५वें प्रश्न में अधिक सुन्दरता से बतलाई गई है, वह प्रसंग 'प्रश्नोपनिषद्' से पढ़ना चाहिये।

[ साभार: महात्मा आनन्द स्वामी सरस्वती ]