चित्त वृत्तियों के निरोध को योग कहते हैं
चित्त वृत्तियों के निरोध को योग कहते हैं
योगश्चित्तवृत्ति निरोध: । अर्थात्- चित्त वृत्तियों के निरोध को योग कहते हैं ।
जिज्ञासु - कुछ विस्तार से बताइए ! आज "विश्व योग दिवस" है,जिसे सम्पूर्ण विश्व में मान्यता मिली हुई है ।हमारे देश के माननीय प्रधानमंत्री जी एवं योग के क्षेत्र में कार्य करने वालों के पुरुषार्थ से "संयुक्त राष्ट्र संघ" ने इस दिन को 'योग दिवस' की मान्यता दी है और इससे हमारा गौरव बढ़ा है । किन्तु फिर भी अनेक वर्षों से मैं योग के शुद्ध स्वरूप को जानने के प्रयत्न में लगा हूं किन्तु समझ में नहीं आया । अतः आप सरल शब्दों में बताइए ।
आचार्य-देखिए हमारे देश में योग अनेक प्रकार से बताया जाता है -सहज योग,राज योग, कुण्डलिनी योग, उपासना योग,अंयगार योग,हठ योग आदि-आदि । इन सभी के ग्रंथ भी अनेक हैं । किन्तु यथार्थ रूप में जो योग है, उसे अष्टांग योग कहते हैं । उस योग का एक मात्र पुस्तक है-योग दर्शन । और योग दर्शन के एक मात्र लेखक हैं- ऋषि पतञ्जलि । इसलिए कुछ लोग इसको पातञ्जल योग भी कहते हैं । इसी एक मात्र विधि से परमपिता परमात्मा की उपासना की जा सकती है, अतः इसे उपासना योग कहते हैं । अन्त:करण में इसी योग दर्शन की उल्लिखित विधि से जब परमपिता परमात्मा की ओम् जप करते हुए, ओम् का अर्थ चिन्तन और समाहित होने की भावना करते हुए भक्त भक्ति में तल्लीन होता है ,तब इसी को भक्ति योग कहते हैं । अतः अष्टांग योग, उपासना योग,भक्ति योग आदि जो भी ऋषियों-मुनियों के बताए हुए नाम हैं वे सभी पातञ्जल योग के ही हैं । किन्तु अपनी विद्वत्ता ऋषियों से अधिक दिखाने की लोकेषणा के वशीभूत होकर कुछ साधकों ने, बाबाओं ने अपने-अपने ग्रंथ लिख दिए और उन ग्रंथों को अपने-अपने मनोनुकूल नाम दे दिए । उन तथाकथित योग के ग्रंथों में भी जो सत्य विद्या है वह ऋषि पतञ्जलि जी के योग दर्शन में से ही ली हुई है । और जो कुछ इधर-उधर की बातें योग से भटकाने वाली हैं, वह सब उन लेखकों ने अपने आप ही कल्पित की हैं । अतः एक बात को गांठ बांधकर 'पत्त्थर पर लकीर' की भांति निश्चित कर लीजिए कि-योग अर्थात् योग दर्शन । और योग अर्थात् ऋषि पतञ्जलि प्रोक्त।अन्य कुछ नहीं है ।
अब ऋषि पतंजलि योग दर्शन के दूसरे सूत्र में साफ-साफ परिभाषा योग की लिखते हैं-योग: चित्त वृत्ति निरोध: । हम सभी सनातन धर्म के पथ पर चलने वाले लोग जानते ही हैं कि हमारे शरीर में एक यंत्र है-चित्त । यह चित्त आज की भाषा में कहें तो संगणक(कम्प्युटर) की हार्ड डिस्क या चिप की तरह है । जिसमें देखा हुआ,सुना हुआ, पढ़ा हुआ,अनुभव किया हुआ सारा ज्ञान इकठ्ठा रहता है । इसी जन्म का नहीं, अपितु पूर्व जन्मों में प्राप्त ज्ञानादि का संस्कार भी विद्यमान रहता है । जो कुछ चित्त में उपस्थित है उसी के अनुसार चित्त की वृत्तियां बनती और बिगड़ती रहती हैं । समुद्र की लहरों की तरह चंचल इन वृत्तियों के निरोध को ही योग कहते हैं ।
भद्र जनों ! यह कहने में जितना सरल हो सका लिख दिया । किन्तु इन वृत्तियों का निरोध इतना सरल नहीं है , इसीलिए ऋषि पतंजलि जी ने योग दर्शन में वृत्तियां क्या है? कितने प्रकार की हैं ? कैसे नियंत्रण में आएंगी आदि-आदि सभी प्रकार से जो सांगोपांग वर्णन जो प्राचीन काल में सम्भव था,आज भी वही है और भविष्य में भी उससे भिन्न कुछ न्यूनाधिक होने की सम्भावना नहीं है । ऐसे सारे प्रश्न एवं प्रश्नों के उत्तर अपने लिखे "योग दर्शन" नामक पुस्तक में लिख दिए हैं । यह ऐसा ग्रंथ है कि इसमें जो कुछ जोड़ेगा तो ईश्वर भक्ति के मार्ग से पतित होगा और जो कुछ कम करेगा तो ईश्वर भक्ति के मार्ग विमुख होगा अर्थात् जितना भी ईश्वर भक्ति के लिए ठीक-ठीक था, है और होगा वह सब इस योग दर्शन में है । वर्तमान समय में हजारों वर्षों बाद ऋषि दयानन्द जी ने भी योग के विषय में यही सत्य कहा है ।
जिज्ञासु-हे आचार्य ! आपने योग तो बता दिया । किन्तु जो योग के नाम पर संसार भर में प्रचारित हो रहा है , वह क्या है ? कहां से प्रचलित हुआ ? जिसका उत्सव आज मनाया जा रहा है , क्या वह ऋषि प्रणीत नहीं है ? किस योगी के द्वारा प्रचारित किया गया है ? कृपया बताइए !!
आचार्य-देखिए पहले आप पूरी निष्ठा से ऋषि पतंजलि जी के "योग दर्शन" को पढ़िए ! उस पर चिंतन-मनन कीजिए ! जो हमने बताया उसे सत्य की कसौटी पर परखिए ! कुछ प्रयोग (प्रैक्टिकल) , उपासना , भक्ति आदि करके देखिए ! तब योग के आगामी वर्ष होने वाले उत्सव पर मिलिएगा । तब आपके अन्य प्रश्नों का उत्तर अवश्य देंगे । नीतिकार ने कहा है- शनै: विद्या.....। अतः योग जानिए ! और फिर मिलिए ! एक वर्ष उपरांत ...
-----------आचार्य हनुमत् प्रसाद
अध्यक्ष-आर्य महासंघ
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