आदिगुरु शंकराचार्य
आदिगुरु शंकराचार्य
आदिगुरु शंकराचार्य
आदिगुरु शंकराचार्य
आदि शंकराचार्य का जन्म केरल में हुआ था. 650 ईसवी के बाद यह वो दौर था, जिसमें भारत में विशाल और स्थिर साम्राज्यों का युग समाप्त हो चला था. साम्राज्य की इच्छा रखने वाले राज्यों में निरन्तर संघर्ष और उत्थान-पतन की लीला ने भारत की राजनीतिक एकता और स्थिरता को हिलाकर रख दिया. कश्मीर, कन्नौज और गौंड के संघर्ष ने और फिर पाल, प्रतिहार और राष्ट्रकूट नरेशों की खींचातानी ने उत्तरापथ को आंदोलित कर डाला था. ठीक वैसे ही दक्षिण में चालुक्य, पल्लव और पाण्डय शासकों की लड़ाइयों ने भारत को विचलित कर रखा था. पश्चिम से अरब सेनाओं और व्यापारियों के प्रवेश ने इस परिस्थिति में नया आयाम जोड़ दिया.
बढ़ती अराजकता और असुरक्षा के वातावरण में स्थानीय अधिकारियों और शासकों का प्रभाव बढ़ने लगा. साम्राज्य की जगह सामंती व्यवस्था आकार लेने लगी. किसानों और ग्राम पंचायतों के अधिकार अभी बरकरार थे पर यह सही है कि इस समय राजसत्ता बिखर चुकी थी. आदि शंकराचार्य के समय तक भारत में प्राचीन स्मृतियों और पुराणों का युग बीत चुका था और अनेक अप्रमाणिक ग्रंथ भी रचे जाने लगे थे. उदारवादी और कट्टर प्रवृत्तियों में टकराहट की आहटें भी सुनायी पड़ने लगी थीं. धर्म के क्षेत्र में तंत्र- मंत्र और प्रतिमा पूजन की प्रवृत्ति भी बढ़ती जा रही थी. पुराने वैदिक देवताओं को नया रूप दिया जा रहा था और साथ ही बौद्धों के अनेक संप्रदाय भी प्रचलन में आ गए थे.
आदि शंकराचार्य के समय की धार्मिक परिस्थिति को वेद के प्रमाण को मानने वाली आस्तिक और उसे न मानने वाली नास्तिक धाराओं के संगम और संघर्ष का युग भी कहा जाता है. शंकराचार्य इसी संक्रांति काल में भारत में अवतरित हुए. उन्होंने अपने प्रखर ज्ञान और साधना के बल से तत्कालीन भारतीय समाज में धर्म के ह्रास को रोकने के लिए अनेक नास्तिक संप्रदायों का सामना कर वैदिक धर्म की प्रतिष्ठा में अपना जीवन समर्पित किया.
आदि शंकराचार्य – महर्षि दयानन्द की दृष्टि में
आर्य समाज के प्रवर्त्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने 1875 ई० में पूना में दिए गए अपने प्रवचन में स्वामी शंकराचार्य को स्मरण करते हुए कहा था –
“पंचशिख और शंकराचार्य – इनका इतिहास देखना चाहिए कि उन्होंने सदा सत्य और सदुपदेश ही किए, उसी प्रकार संन्यासी मात्र को सदुपदेश करना चाहिए ।”
(‘उपदेश-मंजरी’ अथवा ‘पूना-प्रवचन’, तीसरा प्रवचन)
पूना में ही दिए गए अपने एक अन्य प्रवचन में महर्षि ने कहा –
“इनके पश्चात् श्रीयुत गौड़पादाचार्य के प्रसिद्ध शिष्य स्वामी शंकराचार्य जी प्रादुर्भूत हुए । शंकर स्वामी वेद-मार्ग और वर्णाश्रम धर्म के मानने वाले थे । उनकी योग्यता कैसी उच्च कक्षा की थी, यह उनके बनाये शारीरक भाष्य से विदित होता है । शंकर स्वामी के समय में जो अनेक पाखण्ड मत चले थे और जिनका कि उन्होंने खण्डन किया है, वह ‘शंकर-दिग्विजय’ के निम्नलिखित श्लोक से प्रकट होते हैं –