(कविता)होके अब तो विदा चल पड़ी बेटियाँ
(कविता)होके अब तो विदा चल पड़ी बेटियाँ
मेरे आँगन की थी रौशनी बेटियाँ
गुडिया गुड्डे खिलोने पड़े रह गए
हो गई अब तो शायद बड़ी बेटियाँ
करती महसूस माँ की कमी को बड़ा
लौटी पीहर से फिर अनमनी बेटियाँ
ये सहनशक्ति का ये एक भण्डार हैं
जानें किस चीज की बनी बेटियाँ
दिन ढले अब वो घर से निकलती नहीं
रहती हैं आज कल क्यों डरी बेटियाँ
कुल को दीपक मिले सब यही चाहते
कोख में इसलिए ही मरी बेटियाँ
जाने किस बाग के फूल टूटे हैं ये
देख किसने खरीदी बिकी बेटियाँ
अधढंका सा है तन वो थिरकती रही
आज महफ़िल में क्यों नाचती बेटियाँ
सूखी मेहंदी गई रंग को छोड़ कर
इस तरह बाटँती है ख़ुशी बेटियाँ
पूछते है वो जन्नत मिलेगी कहाँ
जिसके आँगन में हों खेलती बेटियाँ
प्यार सत्कार थोडा सा गर मिल सके
ओर कुछ भी नहीं मांगती बेटियाँ
घर की दीवार को गौर से देखती
बीता बचपन रही खोजती बेटियाँ
दर्द में माँ पिता जी अगर हो कभी
रहती बेचैन सी हर घड़ी बेटियाँ
हम हिंदुस्तान की बेटियां हैं।