ओ३म् की महिमा

ओ३म् की महिमा

ओ३म् की महिमा

ओ३म् की महिमा

ओ३म् नाम सबसे बड़ा उससे बड़ा न कोय।
जो उसका सुमिरन करे शुद्ध आत्मा होय।।

परमात्मा का मुख्य का नाम ओ३म् है।जिसका अर्थ है रक्षा करने वाला।

परमेश्वर ने मनुष्य को सभी प्राणियों में श्रेष्ठ बनाया है।इसलिए मनुष्य का कर्त्तव्य होता है कि वह ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य देवी देवताओं की पूजा न करें।जो मनुष्य श्रद्धा और प्रेम से सुबह शाम ओ३म् के नाम का जाप करता है,ऐसे मनुष्य का जीवन हमेशा सुख से व्यतीत होता है।जो मनुष्य ईश्वर के नाम के जाप में आलस्य करता है,उसे जीवन में कभी शांति नहीं मिलती है और न उसे अभी सुख मिलता है।जो मनुष्य अपने को उन्नति के शिखर पर ले जाना चाहता है,वह परमेश्वर के नाम का सुमिरन अवश्य करे।

जो यह सोचता है कि परमेश्वर का नाम लेने से क्या लाभ है? तो समझो वह अपनी मूर्खता का परिचय दे रहा है।जिस परमेश्वर ने हमें इतना अमूल्य मानव शरीर दिया है उसके नाम के लिये क्या हम 24 घण्टों में से एक-दो घण्टा भी नहीं निकाल सकते,तो समझो ये हमारा दुर्भाग्य ही है।ये बहुत कृतघ्नता है।जिसने मनुष्य शरीर दिया है उसी को भूल जाना,और इससे बडी गलती क्या होगी?

मनुष्य रोज अपने दैनिक कार्यों में अपना पूरा दिन लगा देता है।मनुष्य को टी.वी. देखने,बेफिजूल काम करने के समय है पर ईश्वर भक्ति के लिए समय नहीं है,ये मानव जीवन का बहुत बड़ा दुर्भाग्य है।

योग का उद्देश्य भी ईश्वर को पाना है।योगदर्शन में कहा है―"ओ३म् के जाप से ईश्वर का साक्षात्कार होता है और योगमार्ग में आने वाले समस्त विघ्नो़ का नाश होता है।"

किसी कवि ने सही कहा है―
किसी ने पूछा कि तेरा धन माल कितना है?
किसी ने पूछा कि तेरा जाहो जलाल कितना है?
किसी ने पूछा कि तेरा परिवार कितना है?
किसी ने न पूछा कि तेरा प्रभु से प्यार कितना है?

यह पद्य अत्यधिक महत्वपूर्ण है।यह सत्य है कि किसी को प्रभु से प्यार कितना होता है,इसे तो ईश्वर पहचान ही लेता है।यदि कोई व्यक्ति परमात्मा की भक्ति औपचारिक मात्र व दिखावा के रुप में करता है तो वह मनुष्य अपने जीवन में कभी सफल नहीं होता है।

प्रभु भक्त कैसा होना चाहिए।यह बात हमें एक फूल से सीखनी चाहिए।श्री माखन लाल चतुर्वेदी ने एक पुष्प की अभिलाषा इस प्रकार प्रकट की है―

चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊँ।
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिध प्यारी को ललचाऊँ।।
चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरि डाला जाऊँ।
चाह नहीं देवों के सिर पर चढूँ भाग्य पर इठलाऊ।।
मुझे तोड़ लेना वन माली उस पथ में देना तुम फेंक।।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जाये वीर अनेक।।

इस कविता से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें भी प्रभु के प्रति इसी प्रकार की भावनायें होनी चाहिए।प्रभु की भक्ति में अनेक प्रकार की बाधायें भी उपस्थित होती हैं तो हमें पहले प्रभु की भक्ति व उसकी ही उपासना करनी चाहिए।क्योंकि उसकी भक्ति से ही मनुष्य अपने जीवन को उत्थान की सीढ़ी पर ले जा सकता है।वह सर्वत्र व्यापक है।जो व्यक्ति सच्ची श्रद्धा के साथ उसकी भक्ति करता है।वह उसकी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।परमात्मा वाह्य चक्षु से नहीं बल्कि आन्तरिक चक्षु से दिखाई पड़ता है।जब बाहरी नेत्र बन्द हो जाते हैं तब आन्तरिक नेत्र खुलता है।

वह परमात्मा है कैसा? इस विषय में कवि ने बड़ा सुन्दर लिखा है―

मेंहदी की पत्ती लाली है, पर नजर आती नहीं।
है हवा आकाश में पर वह दिखलाती नहीं।।
जिस तरह अग्नि का शोला संग में मौजूद है।
उस तरह हर कण कण में परमात्मा मौजूद है।।


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