आर्य समाज के दीवाने भजनोपदेशक
आर्य समाज के दीवाने भजनोपदेशक
आर्य समाज के दीवाने भजनोपदेशक
पुस्तक :- पंडित चन्द्रभानु व्यक्तित्व कृतित्व
१८७५ में आर्य समाज की स्थापना के बाद स्वामी दयानंद के शिक्षित शिष्यों ने पठित वर्ग में आंदोलन कर दिया था। आर्य समाज के लोगों ने गूढ़ ज्ञान,असीम धैर्य, अद्भुत वाकचातुर्य और तर्कशैली से तथा अपने गुरु के आदर्श को सामने रखकर, वेद पताका लेकर समाज में क्रांति मचा दी थी। लेकिन एक मोर्चा ऐसा भी था जिसमें ज्ञान -गाम्भीर्य और अकूत - विद्वता के हथियार नही चलते थे - वह था ग्रामीण और अपठित जनसामान्य में आर्य समाज का मोर्चा। आर्य समाज के भजनोपदेशकों ने इस चुनौती को स्वीकार किया था और यह मोर्चा जीत कर दिखाया। हालांकि यह तथ्य है कि गिने चूने भजनोपदेशकों को छोड़ अनेक लोकप्रिय भजनोपदेशकों ने विधिवत् शास्त्रीय संगीत शिक्षा नही ली थी। लेकिन उनका अदम्य आत्मविश्वास और आर्य समाज के प्रति श्रद्धा, समर्पण ही उनकी शक्ति थी। जिसके बल पर वे बड़े बड़े तूफानों से टकरा गए।
किसी विशेष विधा के संगीत की शिक्षा को उपदेशक की सफलता की कसौटी मानना मुझे उचित प्रतीत नही होता। हमारे किसी भी बड़े संगीतज्ञ से बड़े संगीतकार दूसरे फिल्मों आदि के क्षेत्रों में अगणित हैं। संगीत के गहन ज्ञान का अवमूल्यन करना मेरा उद्देश्य नही है। लेकिन संगीतज्ञ और उपदेशक में कुछ तो अन्तर है। उपदेशक की सफलता की कसौटी है अपने श्रोताओं को समझना, सिद्धांत का ज्ञान और अपने कर्त्तव्य के प्रति समर्पण। मेरे गुरु जी के कथनानुसार इन सबसे भी बढ़कर है उपदेशक का नैतिक चरित्र और आचरण।
दु:ख की बात यह है कि नेताओं ने ही नही, साहित्यकारों ने भी भजनोपदेशकों के योगदान का समुचित सम्मान नहीं किया। बहुत से भजनोपदेशक तो वृद्ध बैलों की तरह लावारिस छोड़ दिये गए। आज मैं कुछ ऐसे भजनोपदेशकों का उल्लेख करूंगा जिनके नाम का प्राय चर्चा नही होता।।
#चौधरीईश्वरसिंह_गहलोत ( सांग से मुकाबला )
ये भजनोपदेशक आर्य समाज के दीवाने थे। चौधरी ईश्वर सिंह जी काकरौला निवासी अद्भुत कवि भी थे। मुंडलाणा गांव में एक बार आपका प्रचार था उधर पं० लख्मीचंद का सांग होता था। आपका वहां सांग से मुकाबला हो गया, तेरह दिन तक सांग से मुकाबला चलता रहा। आखिर चौधरी ईश्वर सिंह के प्रभावशाली वक्तृत्व के आगे सांगियों के ठूमके फेल हो गए। सांगी भाग खड़े हूए। और चौधरी ईश्वर सिंह जी चौदहवें दिन भी विजय पताका फहराकर गए। यह घटना स्वामी भीष्म जी अक्षर बताया करते।
#स्वामीभीष्मजी_महाराज ( रामलीला से मुकाबला )
पलवल में स्वामी भीष्म जी का मुकाबला रामलीला वालो से हूआ। दस दिन तक रामलीला वालो के मुकाबले प्रचार होता रहा, रामलीला वालो की हाजरी रोज घटती रही, मैं उन दिनों स्वामी जी के पास भजन सीख रहा था। बुलंदशहर के एक गांव (नाम याद नही) में हमारी पार्टी का मुकाबला वहां के मशहूर सांगी होशियारा से चलता रहा।
#पीपा_प्रचार
स्वामी बेधड़क जी (धमतान साहिब जींद वाले), पं० शिवकरण (दादा श्योनी, डाहौला) व मेरी भजन पार्टी पानीपत से पैदल चलकर बापौली पहूंचे। स्थानीय प्रधान लक्ष्मण सिंह वर्मा व अन्य लोगों ने कहा अब तो बहुत देर हो गई, आओ भोजन करो - आराम करो। स्वामी जी बोले हम भोजन करने नही प्रचार करने आए हैं। वर्मा जी बोले लोग कैसे आएंगे। स्वामी जी ने कहा इसकी चिंता मत करो। वे एक पुराना पीपा उठाकर चौपाल पर चढ़ गए और उसको बजा बजा कर चिल्लाने लगे आओ भाइयों आर्य समाज का प्रचार होगा। वहां थोड़ी देर में ही लोगो का जमावड़ा हो गया ओर जमकर प्रचार हुआ।
#पोपोकाआक्रमण
उचाना मंडी में मंदिर के आगे प्रचार हो रहा था। श्राद्धो का विषय चल रहा था। लगभग ५८-५९ की बात है। दादा शिवनारायण बोल रहे थे - पोपों का खाया हुआ तुम्हारे बाप दादा तक कैसे पहुंचेगा। शब्द कुछ और थे, जो यहां लिखने उचित नहीं। बहुत से लोग लाठियां लेकर आ गए। मारने को तैयार थे। मैं उस समय जवान था। मेरे हाथ में चिमटा था। मैने पं० जी को तख्त के पीछे कर लिया ओर खुद चिमटा लेकर खड़ा हो गया। और उनको ललकारा तब तक आर्य समाज के लोग भी आ खड़े हूए। समझाने बुझाने से शांति हो गई। हमने कहा अब तो तभी प्रचार करेगें जब यहां आर्य समाज बनाओगे। दो साल वहां मंदिर बना गया। भगत टेकचंद जी, महाशय रामकरण जी, लाला बिशनदास कुल्हाड़े वाले, मंडी के कई सज्जनों, बुडायण एवं कापड़ो गांव वालों की इसमें अहम भूमिका रही।
#झाबरनहींबलवीर
भिवानी में एक बार शास्त्रार्थ हुआ। पौराणिकों और आर्यों में लाठियां चल गई। खूब लाठियां चली। भजनोपदेशक झाबर के हाथ एक लाठी लग गई। इन्होने बड़े हाथ दिखाए, शास्त्रार्थ महारथी पं० मनसाराम वैदिक तोप ने कहा कि इसका नाम झाबर नही, बलवीर होना चाहिए, तब से आपको बलवीर कहा जाने लगा। बलवीर झाबर जी अलेवा जींद से थे।
पंडित बस्तीराम जी की शिक्षा :-