माँ फिर रो पड़ी।
माँ फिर रो पड़ी।
माँ फिर रो पड़ी।
(मेरी डायरी का एक पृष्ठ - शिव वर्मा)
अशफाक और बिस्मिल का यह शहर कालेज के दिनों में मेरी कल्पना का केन्द्र था । फिर क्रान्तिकारी पार्टी का सदस्य बनने के बाद काकोरी के मुखविर की तलाश मे काफी दिनों तक इसकी धूल छानता रहा था। अस्तु, यहाँ जाने पर पहली इच्छा हुई विस्मिल की माँ के पैर छूने की । काफी पूछताछ के बाद उनके मकान का पता चला। छोटे से मकान की एक कोठरी में दुनिया की आँखों से अलग वीर-प्रसविनी अपने जीवन के अन्तिम दिन काट रही हैं Unknown, unnoticed । पास जाकर मैंने पैर छुए। आँखों की रोशनी प्राय समाप्त-सी हो चुकने के कारण पहचाने बिना ही उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और पूछा, "तुम कौन हो ?' क्या उत्तर दें, कुछ समझ में नहीं आया। थोड़ी देर के बाद उन्होने फिर पूछा, "कहाँ से आये हो बेटा ?" इस बार साहस कर मैने परिचय दिया--"गोरखपुर जेल में अपने साथ किसी को ले गयी थी, अपना बेटा बनाकर ?" अपनी ओर खीचकर सिर पर हाथ फेरते हुए माँ ने पूछा, "तुम वही हो बेटा ? कहाँ थे अब तक ? मै तो तुम्हे बहुत याद करती रही, पर जब तुम्हारा आना एकदम ही बन्द हो गया तो समझी कि तुम भी कही उसी रास्ते पर चले गये।" माँ का दिल भर आया। कितने ही पुराने घावो पर एक साथ ठेस लगी । अपने अच्छे दिनों की याद, बिस्मिल की याद, फॉसी, तख्ता, रस्सी और जल्लाद की याद, जवान बेटे की जलती हुई चिता की याद और न जाने कितनी यादो से उनके ज्योतिहीन नेत्रो में पानी भर आया - वो रो पड़ी । बात छेड़ने के लिए मैंने पूछा "रमेश (बिस्मिल का छोटा भाई) कहाँ है ?” मुझे क्या पता था कि मेरा प्रश्न उनकी आँखों में बरसात भर लायेगा । वे ज़ोर से रो पडी। बरसो का रुका बाँध टूट पड़ा सैलाब बनकर । कुछ देर बाद अपने को संभाल कर उन्होंने कहानी सुनानी शुरू की।
आरम्भ में लोगों ने पुलिस के डर से उन के घर आना छोड दिया । वृद्ध पिता की कोई बँधी हुई आमदनी न थी। कुछ साल बाद रमेश बीमार पडा । दवा-इलाज के अभाव में बीमारी जड पकडती गई । घर का सब कुछ बिक जाने पर भी रमेश का इलाज न हो पाया। पथ्य और उपचार के अभाव में तपेदिक का शिकार बनकर एक दिन वह माँ को निपुती छोड़कर चला गया। पिता को कोरी हमदर्दी दिखाने वालो से चिढ हो गई। वे बेहद चिडचिडे हो गये । घर का सब कुछ तो बिक ही चुका था । अस्तु, फाको से तंग आकर एक दिन वे भी चले गये, माँ को ससार मे अनाथ और अकेली छोडकर । पेट में दो दाना अनाज तो डालना ही था । अस्तु, मकान का एक भाग किराये पर उठाने का निश्चय किया। पुलिस के डर से कोई किरायेदार भी नहीं आया और जब आया तब पुलिस का ही एक आदमी ! लोगो ने बदनाम किया कि माँ का सम्पर्क तो पुलिस से हो गया है। उनकी दुनिया से बचा हुआ प्रकाश भी चला गया। पुत्र खोया, लाल खोया, अन्त में बचा था नाम, सो वह भी चला गया ।
उनकी आंखो से पानी की धार बहते देखकर मेरे सामने गोरखपुर की फाँसी की कोठरी धूम गई। काकोरी के चारो अभियुक्तों के जीवन का फैसला हो चुका था---To be hanged by the neck till they be dead. (प्राण निकल जाने तक गले में फन्दा डालकर लटका दिया जाय ।) फाँसी के एक दिन पहले अतिम मुलाकात का दिन था । समाचार पाकर पिता गोरखपुर आ गये। माँ का कोमल हृदय शायद इस बात को सँभाल न सके, यही समझकर उन्हें वे साथ न लाये थे । प्रात हम लोग जेल के फाटक पर पहुँचे तो देखा कि माँ वहाँ पहले से ही मौजूद है । अन्दर जाने के समय सवाल आया मेरा, मुझे कैसे अन्दर ले जाया जाये। उस समय माँ का साहस और पटुता देखकर सभी दंग रह गये। मुझे खामोश रहने का आदेश देकर उन्होने मुझे अपने साथ ले लिया। पूछने पर यह कह दिया, "मेरी बहन का लडका है।" हम लोग अन्दर पहुंचे। माँ को देखकर रामप्रसाद रो पडे, किन्तु मां की अाँखो मे आँसुग्नो का लेश भी न था । उन्होने ऊँचे स्वर में कहा-- "मैं तो समझती थीं कि मेरा बेटा बहादुर है, जिसके नाम से अग्रेजी सरकार भी काँपती हैं। मुझे नहीं पता था कि वह मौत मे डरता हैं । तुम्हे यदि रो कर ही मरना था तो व्यर्थ इस काम मे आये।" बिस्मिल ने आश्वासन दिया। आँसू मौत से डर के नही वरन् माँ के प्रति मोह के थे । "मौत से मै नही डरता माँ, तुम विश्वास करो।" माँ ने मेरा हाथ पकड़कर आगे कर दिया। यह तुम्हारे आदमी हैं। पार्टी के बारे में जो चाहो इनसे कह सकते हो। उस समय माँ का स्वरूप देखकर जेल के अधिकारी तक कहने को बाध्य हुए कि बहादुर माँ का बेटा ही बहादुर हो सकता है ।
उस दिन समय पर विजय हुई थी माँ की और आज मां पर विजय पाई हैं समय ने । आघात पर आघात देकर उसने उनसे बहादुर हृदय को भी कातर बना दिया है । जिस माँ की अाँखो के दोनो ही तारे विलीन हो चुके हो उसकी आँखो की ज्योति यदि चली जाये तो इसमे आश्चर्य ही क्या है ? वहाँ तो रोज ही अँधेरे बादलो से बरसात उमड़ती रहेगी।
कैसी है यह दुनिया, मैंने सोचा । एक ओर 'बिस्मिल जिन्दाबाद' के नारे और चुनाव में वोट लेने के लिए बिस्मिल द्वार का निर्माण और दूसरी ओर उनके घरवालो की परछाई तक से भागना और उनकी निपूती बेवा माँ पर बदनामी की मार ! एक ओर शहीद परिवार सहायक फण्ड के नाम पर हजारो को चन्दा और दूसरी ओर पथ्य और दवादारू तक के लिए पैसो के अभाव में बिस्मिल के भाई का टी० बी० से घुटकर मरना ! क्या यही है शहीदो को आदर और उनकी पूजा ?
फिर आऊँगा माँ, कहकर मैं चला आया, मन
पर न जाने कितना बड़ा भार लिए।
शाहजहाँपुर
२३, फरवरी १९४६
शिव वर्मा
प्रस्तुति -