ज्ञानमयी अमृतवाणी 

     ज्ञानमयी अमृतवाणी 

     ज्ञानमयी अमृतवाणी 

     ज्ञानमयी अमृतवाणी 
        

     हम सर्वथा कर्म का त्याग नही कर सकते क्योंकि हम किसी भी समय क्षणमात्र भी कुछ न कुछ किये बिना रह नहीं सकते ।इसमें शक नही कि हम प्राकृतिक गुणों से विवश हो कर कुछ न कुछ कर्म किया ही करते हैं इसलिए जो पुरुष हठपूर्वक इन्द्रियों को कार्य करने से रोकता है पर मन से भोगों तथा कामनाओं का चिन्तन किया करता है वह मिथ्याचारी, पाखण्डी और दम्भी है तथा कुछ न करता हुआ भी कर्मों के बंधन से बंधता रहता है ।

          इन्द्रियों का निग्रह करते हुए मन को विवेक तथा धैर्य से वश में रखकर ही उचित कर्म किये जा सकते है, जैसे घोड़े की लगाम वश में रखकर और सही मार्ग का ज्ञान होने पर ही हम सही रास्ते पर चल सकते है ।फल के प्रति आशक्ति न रख कर अपने कर्म को अपना धर्म समझकर जो व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करता रहता है।ऐसा व्यक्ति कर्म करता हुआ भी कर्म कर्मों के बन्धन्न में नही बंधता और दुःखों से बचा रहता है ।

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